The Guru of Gurus - Audio Biography
The Guru of Gurus - Audio Biography
आध्यात्मिक कम्पस
गुरुदेव एक ऐसे महागुरु थे जिन्होंने न केवल अंधकार को दूर किया बल्कि हमें भी ऐसा करना सिखाया। गुरुओं के गुरु की ऑडियो जीवनी के समापन पॉडकास्ट में, हमने उस महान ऋषि पर प्रकाश डाला है जो इतने सारे लोगों के लिए प्रकाशस्तंभ थे और रहेंगे।
गुरुदेव ऑनलाइन गुरुओं के गुरु - महागुरु की ऑडियो बायोग्राफी प्रस्तुत करता है।
यदि इस पॉडकास्ट से संबंधित आपका कोई सवाल है या फिर आपको आध्यात्मिक मार्गदर्शन की आवश्यकता है, तो हमें लिखें - answers@gurudevonline.com.
आप गुरुदेव की जिंदगी और उनकी विचारधारा के बारे में इस वेबसाइट पर भी पढ़ सकते हैं - www.gurudevonline.com
गुरुदेव ने व्याख्यानों या पुस्तकों के ज़रिये नहीं पढ़ाया। उन्होंने उदाहरणों और एक वाक्य में समझा दिया। एक कम्पस दिशा दिखाता है और जंगल से बाहर निकलने का रास्ता बताता है। उनका भी यही काम था। वे एक ऐसे महागुरु थे जिन्होंने न केवल अंधकार को दूर किया, बल्कि हमें भी आगे चलकर ऐसा ही करने की सीख दी।
आध्यात्मिक कम्पस
एक साधारण परिवार में, एक साधारण शहर में जन्मे, और एक साधारण सा पालन-पोषण पाने के बाद गुरुदेव को परंपरा, सामाजिक मानदंडों और सामान्य दृष्टिकोणों से ही घिरा होना चाहिए था।
लेकिन वह ऐसे नहीं थे!
वह अपनी परिस्थितियों से बाहर निकलने में कामयाब रहे और दोस्तों, परिवार और अन्य लोगों के विरोध के डर की चिंता किए बगैर समाज की प्रचलित बुराइयों के खिलाफ़ उठकर निष्पक्ष काम किया और लोगों को भी वैसा ही करना सिखाया।
ऐसी मनोवृत्ति उन लोगों में स्वाभाविक रूप से होती है जो मन से उन्नत होते हैं और जिनकी आत्मा विकसित होती है। उनके विचार और दृष्टिकोण सांसारिक लोगों से एकदम अलग होते हैं और ऐसे लोग अप्रचलित मार्ग का अनुसरण करते हैं। और इसलिए, उन्हें आध्यात्मिक कम्पस माना जा सकता है।
गुरुदेव ऐसे ही इंसान थे।
बिंदु लालवानी विस्तार से बताती हैं।
बिंदू जीः "एक ख़ूबसूरत शब्द है - 'सहज', जो अपने आपमें सबकुछ समेट लेता है। उनके साथ भक्ति करना बहुत सहज था - बहुत ही सरल और आसानी से पाने योग्य। उन्होंने ऐसी किसी बात का प्रचार नहीं किया जिसे हासिल करना मुश्किल हो...छोटे-छोटे क़दमों से आगे बढ़नाऔर आध्यात्मिकता का एक बहुत ही सरल तरीक़ा अपनाना। संन्यासी नहीं बनना मगर गृहस्थ बनकर ही घर-परिवार और समाज के भीतर रहना था। आपको शादी करनी है, आपको बच्चे पैदा करने हैं, आपको अपने भाई-बहनों, अपने माता-पिता,बच्चों, अपने घर-परिवार के प्रति सभी कर्तव्यों को पूरा करना है और साथ ही साथ पूर्ण वैराग्य भी प्राप्त करना है। आसक्ति के भीतर वैराग्य - यही उपदेश उन्होंने दिया। आपको हर किसी के लिए उपलब्ध रहना है, किसी को भी नज़रंदाज़ नहीं करना है। इसका मतलब है किआपको अपने माता-पिता,अपने बच्चों,अपने व्यवसाय और अपनी भक्ति के लिए उपलब्ध रहना होगा।"
प्रतिस्पर्धा दूसरों के साथ नहीं, अपने आपके साथ थी। हमें अपनी आत्माओं की ट्यूनिंग को बेहतर बनाना था। निरंतर चिंतन और सुधार एक रोज़ाना का अभ्यास बन गया। हम अपने भीतर की कमजोरियों को दूर करने की कोशिश में जुटे हुए हैं।
मीलों आगे निकल चुके एक आध्यात्मिक गुरु के पीछे-पीछे चलना आसान काम नहीं है। उनकी याद हमारे लिए प्रेरणा है और हम उनकी शिक्षाओं को और भी कई लोगों के साथ साझा करना चाहेंगे।
बिट्टू जी ने महागुरु के आकर्षक व्यक्तित्व का जो वर्णन किया है, वह सुनने लायक है!
बिट्टू जीः: उन्होंने वास्तव में समाज को बेहतर बनाने की कोशिश की। वह दहेज़ और शादियों पर बेवजह ख़र्च करने के खिलाफ़ थे। मेरी शादी,मेरे भाइयों की शादियां और मुझसे उम्र में बड़े भाई पप्पू सरदार की शादी - सभी का आयोजन बिना एक भी रुपया लिए किया गया। और जो लंगर था, वही हमारी शादी का खाना था। गुरुजी कहा करते थे, "बेटा,हमें समाज में एक ऐसी मिसाल कायम करनी है कि कोई स्त्री को बोझ न समझे।"
और दूसरी बात वे कहते थे, “जो कोई तुम्हें अपनी बेटी देता है, वह तुम्हें सब कुछ दे देता है। सबसे बड़ा दान कन्यादान है।" गुरूजी की कृपा से हमें सद्बुद्धि मिली।
उनके बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उनका विश्वास जन-सेवा में था। सिर्फ गुड़गांव स्थान में ही नहीं, बल्कि आप जहां भी जाएं, लोगों की सेवा करें। वह कहते थे, "पाठ की एक सीमा है, लेकिन सेवा की कोई सीमा नहीं है। आप जितनी अधिक सेवा करेंगे, ईश्वर आपकी उतनी ही देखभाल करेंगे। यदि आप ईश्वर की रचनाओं के लिए समय निकालेंगे, तो वह आपके लिए समय निकालेगा।"
कन्यादान पर मेरा विचार इस प्रकार है:
चूंकि एक स्त्री शादी के बाद अपने पति के परिवार से जुड़ जाती है और उसके सभी दायित्व अपने पति के परिवार के पूर्वजों के प्रति हो जाते हैं, इसका बहुत बड़ा महत्व है। किसी और परिवार ने उसे जन्म दिया और दशकों तक उसकी देखभाल की और फिर वह संपत्ति जिसमें उन्होंने भारी निवेश किया था, दूसरे परिवार को उपहार में दे दी।
यह कोई छोटा उपहार नहीं है।
गुरुदेव का स्त्रियों के प्रति अति सम्मान था, उन्हें वह शक्ति की अभिव्यक्ति मानते थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि हमें अपने जीवन में आने वाली महिलाओं के साथ सम्मान और परवाह के साथ पेश आना चाहिए। उन्होंने बार-बार कहा कि स्त्रियों का सकारात्मक स्पंदन और भावनाएं हमें आध्यात्मिक रूप से विकसित होने में मदद करेंगी।
कम्पस को पढ़ना आसान था, लेकिन अक्सर उसके अनुसार आगे बढ़ना मुश्किल होता था।
महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने वाले शिष्यों को गुरुदेव के क्रोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गृहस्थ आश्रम के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति की वक़ालत की जहां शक्ति यानी स्त्री एक भागीदार थी।
उमा प्रभु गुरुदेव के दर्शन के प्रति बड़ी आसक्त थीं। एक खामोश समीक्षक और गहन विचारक। उन्होंने कुछ ही वाक्यों में गुणों की अवधारणा को संक्षेप में प्रस्तुत किया।
उमा प्रभु जी: वह मुझसे कहते थे,"पुत्तर, इतना काफ़ी नहीं है।" वह पंजाबी और हिंदी में बोलते थे। उनकी कही हुई बातों का मैं सार बता रही हूं, "पुत्तर इतना पर्याप्त नहीं है कि आप मंत्रों का जाप करें,आपको सचेत रूप से अपना आचरण भी बदलना चाहिए।" अपने आप को देखने और अपने व्यक्तित्व में खामियों को दूर करने से बढ़कर कुछ नहीं है। मैं लगातार ऐसा कर रही हूं।
एक योगिक रहस्य यह है कि आप किसी भी गुण को अपनी और आकर्षित कर सकते हैं...
इसलिए सावधान रहें।
दूसरों की आलोचना करने पर उनके नकारात्मक गुण हमारे अंदर भी आ सकते हैं।
जब हमारी आलोचना की जाती थी, तो वह कहते थे कि हम पर एहसान किया जा रहा है और हमें मिठाई बांटनी चाहिए। हालांकि, मुझे शुरू में उनकी इस बात को समझना मुश्किल लगा, मैं सोचता था कि आखिर इसका क्या मतलब है। इसलिए, मैंने इस सीख को आपके साथ साझा करने का विचार किया।
आप जिस पर ध्यान केंद्रित करते हैं, उसके गुण आपको प्राप्त हो जाएंगे। हिम्मत चाहिए तो सिंह का ध्यान करें। गति के लिए घोड़े पर ध्यान करें। शक्ति के लिए हाथी का ध्यान करें। और इसी तरह बहुत से उदाहरण हो सकते हैं। मैंने फैसला किया कि मैं गुरुदेव का ध्यान करूंगा क्योंकि वही मेरी मंजिल हैं। उनके सद्गुण पाना मेरी तमन्ना थी और उन जैसा स्वभाव पाना मेरी महत्वाकांक्षा थी।
यदि आप मुझसे पूछें, तो मुझे लगता है कि ऐसा करने से मेरे स्वभाव में बदलाव आया है। मैंने उनकी तरह सोचना सीख लिया है। अगर पूरी तरह से नहीं तो कम से कम आंशिक रूप से ही। मेरे कई गुरु भाइयों ने भी ऐसा ही किया है।
गुरुदेव हम सभी शिष्यों को एकसाथ देखना चाहते थे। चाहते थे कि सभी एक तरह से सोचें, एक तरह से काम करें। उनका इस बात पर जोर था कि हम किसी से भेदभाव न करें, और सर्वोत्तम ढंग से जीवन जीएं। इसके अलावा वह चाहते थे कि हम कर्ज़ मुक्त हों और किसी का एहसान न लें।
देने वाले बनें, न कि लेने वाले।
बिट्टू जी बताते हैं।
बिट्टू जीःउन्होंने हमेशा हमें निडर होकर सच बोलना सिखाया। उनका कहना था जो होना है, वह होकर रहेगा। उन्होंने हमें जीवन में किसी भी समस्या का सामना करना सिखाया।x
राजपाल जी गुरुदेव की अनूठी शिक्षाएं हासिल करने वालों में से एक थे। हालांकि सबकुछ अनजाने में हुआ, लेकिन उन्होंने महसूस किया कि उनके गुरु ने चीज़ों को कितनी गहराई से देखा। उनके लिए यह अकल्पनीय था। जानिए वह क्या कहते हैं।
राजपाल जीः मेरा सिंगापुर जाने का प्रोग्राम था। मैंने गुरुजी को सिंगापुर के अपने पूरे कार्यक्रम की जानकारी दे दी थी। अगले दिन मेरी फ्लाइट थी और मुझे गुरूजी का आशीर्वाद लेना था। तब गुरुजी ने ताना मारने के अंदाज़ में मुझसे कहा, "मेरा बेटा दुनिया को धोखा देने वाला है।" मैंने उनसे पूछा, "मैं?मैंने किसी को धोखा नहीं दिया है।" उन्होंने कहा, "यदि अभी नहीं दिया है, तो शायद तुम आगे किसी को धोखा देने जा रहे हो।"
मैंने उनसे पूछा कि मैं किसे धोखा देने जा रहा हूं। उन्होंने कहा, "तुम सिंगापुर जा रहे हो"। मैंने कहा कि मैं एक कारख़ाना देखने जा रहा हूं। "एक डाई है, एक मशीन जो एडी शीट पर सिंक बनाती है। उसी शीट पर आप ड्रेन बोर्ड और कटोरी बना सकते हैं। मैंने गुरुजी से कहा, अभी तक हम अलग-अलग चादरों पर सिंक, ड्रेन बोर्ड और कटोरे बना रहे थे और हम उन्हें एक साथ जोड़ते थे-इसे ड्रेन बोर्ड सिंक कहा जाता है। मैंने सुना है कि सिंगापुर में एक फैक्ट्री है जिसमें एक विशेष डाई और एक शीट होती है जो बिना किसी वेल्डिंग के दोनों को एक ही शीट पर बनाती है। गुरुजी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं इसे देखने जा रहा हूं। मैने हां कह दिया। फिर उन्होंने कहा, "तुमने उन्हें यह नहीं बताया कि तुम मशीन देखने जा रहे हो। तुमने उनसे कहा है कि तुम एक खरीदार हो और 10,000 सिंक खरीदने वाले हो। और तभी वे लोग तुमको लेने के लिए हवाई अड्डे पर आएंगे।” मैंने कहा, "गुरुजी,आप सब कुछ जानते हैं।" उन्होंने कहा "हां बेटा, मुझे पता है।" तो मैंने पूछा, "लेकिन मैंने इसमें उन्हें कैसे धोखा दिया है?"गुरुजी ने कहा, "तुम न केवल उन्हें धोखा दे रहे हो, बल्कि उनका दिल भी तोड़ोगे, क्योंकि तुम सिंक खरीदना ही नहीं चाहते हो। इससे उनका दिल टूट जाएगा और उन्हें कष्ट होगा। तुम तो बस देखने जा रहे हो, जबकि वे आपके लिए तमाम इंतज़ाम कर रहे हैं। हवाई अड्डे पर लेने के लिए एक कार भेज रहे हैं और तुम उन्हें धोखा दे रहे हो। मैंने कहा, "गुरुजी, यह 101% सच है लेकिन गुरुजी मुझे नहीं पता कि उस तरह की डाई कैसे बनाई जाती है।" गुरुजी ने कहा, "बेटा,मैं तुम्हें सिखाऊंगा।" उन्होंने मेरे सीने पर हाथ रखकर यह बात कही थी। मैंने उसी क्षण अपनी यात्रा रद्द कर दी। 15 दिन बाद बड़ा वीरवार (बड़ा गुरुवार) था और बहुत सारे लोग आए थे। जब मेरी बारी समाप्त हुई तो मैं स्थान के सामने बने हुए एक छोटे से कमरे में पलंग पर लेट गया। मैं सोना चाहता था। मुझे नहीं पता था कि क्या मैं सो रहा था, लेकिन मैं जाग भी नहीं रहा था। मेरे दिमाग में पीछे कहीं डाई का विचार चल रहा था। डाई का पूरा खाका, उसकी पूरी तकनीकी विशेषताओं के साथ मेरी आंखों के सामने दिखाई दिया। जब मैंने आंखें खोलीं तो सबकुछ ओझल हो गया इसलिए मैंने फिर से आंखें बंद कर लीं। मेरे दिमाग़ में फिर से ब्लूप्रिंट आ गया। डाई की पूरी ड्राइंग मेरे सामने थी आंखें खुलते ही सब कुछ ग़ायब हो गया। मैं अगले दिन फैक्ट्री गया और अपने हेड फोरमैन को बुलाया। मैंने उनसे कहा, "रतन सिंह जी, डाई तो ऐसे ही बननी चाहिए।" चर्चा के बादरतन सिंह मुझसे कहते हैं, “बाउजी, इस डिजाइन का तो कोई डाई नहीं बन सकता। क्या आप मज़ाक कर रहे हैं?आप तो ख़ुद तकनीक जानते हैं।" मैंने उससे कहा कि यही डिज़ाइन था। उन्होंने कहा, "बाउजी,आपकी उम्र 45-46 के आसपास होनी चाहिए। मेरी उम्र 70 साल है। मैं 45 साल से काम कर रहा हूं और मैंने इस तरह का कोई डिज़ाइन नहीं देखा।'मैंने उनसे कहा, "रतन सिंह जी हमें इसे बनाना है।"
सवालः क्या इसे बनाया गया?
मैंने उनसे कहा कि हमें इसे बनाना है। रतन सिंह ने कहा कि हमें 50,000 रुपये का नुक़सान होगा। मैंने कहा, रतन सिंहजी मैंने 50,000 रुपये बचाए भी हैं। तो रतन सिंह ने मेरे निर्देशानुसार डाई बनाना शुरू किया। पहले स्ट्रोक में ही काम बन गया। डाई बनाने के बाद हमने अगली तकनीकी प्रक्रियाएं कीं और सिंक बना डाला-एक झटके में नतीजा ठीक मिला। मैंने सोचा, हे भगवान गुरुजी तो एक इंजीनियर भी हैं। उन्होंने मुझे ट्रेनिंग नहीं दी, बल्कि जब मैं सो रहा था तो उन्होंने मुझे डाई का पूरा खाका ही दे दिया।
महागुरु इस तरह के इंजीनियर थे कि लोगों को डूबना नहीं तैरना सिखाते थे! उनका बहुत समय अपने शिष्यों को ट्रेनिंग देने और उन्हें दूसरों को प्रेरित करने के तरीक़े सिखाने में व्यतीत होता था। हमारी दिव्यता हमारे लिए एक रहस्य थी। अंदर पिंजरे में कैद थी। उन्होंने हमारे ताले में चाबी लगाकर उसे आज़ाद किया।
वह सलाह देते थे - निरीक्षण करो, आकलन करो और फिर कायापलट करो।
मैंने हमेशा राजपाल जी के प्यारे लंबे कानों की प्रशंसा की। मैं सोचता था कि क्या कहीं वे गुरुदेव की खिंचाई के कारण तो लंबे नहीं हो गए थे। हममें से कुछ लोग भाग्यशाली थे जिन्हें गुरुदेव ने समय-समय पर फटकार लगाई थी। इससे हमारे आध्यात्मिक विकास का विस्तार करने में और हमें सही रास्ते पर चलने में मदद मिली।
एक ही कम्पस ने राजपाल जी को अलग-अलग रीडिंग दिखाई थी।
राजपाल जीः मैं अपने गुरुजी के पास गया। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और हमेशा की तरह मुझे आशीर्वाद दिया। जैसे ही मैं ख़ुशी-ख़ुशी खड़ा हुआ, गुरुजी ने कहा, "राजे, तुम अपने कारख़ाने के कर्मचारियों को गालियां देकर यहां आए हो।" उस दौर में न कोई टेलीफोन था, न संचार का कोई तरीक़ा था, न हीसंदेशवाहक थे।
मैंने उनसे पूछा, "गुरुजी, आपको किसने बताया?"उन्होंने कहा, "मैं तुम्हारा गुरु हूं। जब भी मैं चाहूं, मैं तुमको देख सकता हूं-जब भी मेरा मूड हो।" तब मैंने कहा,"गुरुजी,केवल आप ही इस तरह का काम कर सकते हैं। मैंने पहले कभी नहीं सुना कि मैंने दिल्ली में कुछ किया हो और आप मुझे यहां (गुड़गांव) से देख पाते हों। गुरुजी,मैं आपको कारण बताऊंगा कि मैंने अपने कर्मचारी को फटकार क्यों लगाई, कृपया आप मुझसे नाराज़ न हों। उसकी ग़लती के कारण हमें नुकसान हुआ। गुरुजी ने तब कहा, "हर कोई नुक़सान और ग़लतियां करता है,बेटा। ऐसा कोई इंसान नहीं है जो ग़लती न करे या नुक़सान न करे। फिर वह तो तुम्हारे लिए काम करता है, वह तुम्हारे लिए चीजें बनाता है और तुम उसे गालियां देते हो।” मैं थोड़ी बहस करने लगा और कहा, "गुरुजी, मैं उसे वेतन देता हूं।" तब गुरुजी ने कहा, "राजे, वेतन उसको उसके भाग्य के कारण मिल रहा है। तुमको उसको देना ही पड़ेगा। उसके कर्मों से तुम्हारी फैक्ट्री में माल बनता है, जिसका तुम लाभ कमाते हो, कार खरीदते हो, घर बनाते हो - यह उसका कर्म है। तुम्हारे लिएयह एक कर्ज़ है।"
हे भगवान,मैंने ऐसा तो कभी नहीं सुना था। किसी कारख़ाने का मालिक वास्तव में अपने श्रमिकों का कर्ज़दार होता है। गुरुजी ने कहा, "हां बेटा।"
उन्होंने अशोक भल्ला को अपने व्यक्तित्व में एक बड़े बदलाव के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अशोक जी के स्वभाव से तीन ए - एंगर, एरोगेंस और एग्रेशन - (क्रोध, अहंकार और आक्रामकता) घटाने में मदद की!
आयी अशोक भल्ला जी से सुनते हैं!
अशोक जीःआमतौर पर लोग मुसीबतों से बचते हैं और मैं मुसीबतों की तलाश में रहता हूं।
सवालः तो, क्या आप उन लोगों में शामिल थे जो लोगों के प्रति शारीरिक रूप से बहुत आक्रामक होते हैं?
अशोक जीःहां मैं था। मैं काफी आक्रामक था।
सवालःआपमें कितना परिवर्तन हुआ है?
अशोक जीःन केवल मेरे भीतर का क्रोध और हिंसा कम हुई, बल्कि कुल मिलाकर ज़बर्दस्त बदलाव आया है। चीज़ों को देखने का नज़रिया बदल गया है। अलग-अलग स्थितियों पर मेरी प्रतिक्रिया अब पहले की तुलना में बहुत अलग होती है।
सवालःआपमें यह बदवाल कैसे आया?
अशोक जीःसोचने का तरीक़ा बदला। मैंने सीखा कि किस स्थिति में वास्तव में किस तरह की प्रतिक्रिया होनी चाहिए।जब मैं गुरुजी से दूसरी बार मिला तो उन्होंने मुझे क्रोधित होने से रोका। तीसरी बार जब मैं उनसे मिला तो उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या तुम अपने क्रोध को क़ाबू में रख सके?मैंने सोचा और कहा, "नहीं,अभी तक नहीं। पिछली मुलाक़ात से लेकर इस मुलाक़ात तक 5-6 दिनों में मैंने बहुत लोगों को मारा है...पर मैं कोशिश करुंगा।"
मैं उनसे कभी झूठ नहीं बोल सकता था। मैंने बार-बार कोशिश की लेकिन मैं लाचार था। बस एक बात थी किकिसी को मारने की घटनाओं के बीच की अवधि घट गई थी, पहले मारने की घटना बार-बार होती थी लेकिन फिर यह सप्ताह,महीने,दो महीने पर आ गई।लेकिन मारपीट पूरी तरह से बंद नहीं हुई। आख़िरकार 3 साल बाद मुझे बहुत बुरा लगा,बहुत अपमानित महसूस हुआ कि गुरुजी को बार-बार मुझसे क्यों पूछना पड़ रहा है। फिर मैंने निश्चय किया कि आज से कुछ भी हो जाए मैं किसी पर हाथ नहीं उठाऊंगा। और मैं इसमें बहुत सफल रहा।
सवालःतो गुरुजी ने आपको प्रेरित किया?
अशोक जीःवह कुछ नहीं कहते थे। केवल पूछते थे, "क्या अब भी तुमको गुस्सा आता है?क्या आपने ख़ुद पर नियंत्रण पा लिया?"
सवालःउन्होंने आपको कभी भाषण नहीं दिया?
अशोक जीःउन्होंने मुझे कभी भाषण नहीं दिया। लेकिन जिस तरह से वह पूछते थे,वह पूछना ही कुछ अलग था। मैं वास्तव में नहीं बता सकता कि वह क्या था लेकिन उनके पूछने ने मुझे अपने गुस्से पर क़ाबू पाने के लिए प्रेरित किया। फिर मैं लगभग 3महीने तक बहुत ख़ुश रहा, मैंने कोई झगड़ा नहीं किया।3या 4महीने की अवधि के दौरान गुरुजी ने मुझसे कभी नहीं पूछा "बेटा अब भी तुम गुस्सा करते हो?"वैसे वह हमेशा मुझसे पूछते थे लेकिन उस दौर में उन्होंने मुझसे कभी नहीं पूछा जबकि मैं चाहता था कि वह मुझसे पूछें ताकि मैं जवाब दे सकूं।
फिर तीन-चार महीने बाद एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी। किसी व्यक्ति ने एक चीज़ चुरा ली थी।मैं उससे बहुत अच्छी तरह से बात करने की कोशिश कर रहा था और उससे वह चीज़ वापस मांग रहा था। मुझे उसकी बहुत सख्त जरूरत थी। वह मेरी बात नहीं मान रहा था। इसलिए मैंने अपना आपा खो दिया और उसे मार दिया। मैंने उसे ज़्यादा नहीं मारा, लेकिन मारा तो सही। फिर मैंने अपने आप से कहा कि मुझे गुस्सा नहीं करना चाहिए था, उसे मारना नहीं चाहिए था, मुझसे ग़लती हो गई। फिरमुझे बहुत अफ़सोस हो रहा था। अचानक मुझे एहसास हुआ कि इस आदमी की वजह से मेरी 5 से 6 महीने की तपस्या बर्बाद हो गई है। उसके बाद मैं वापस गया और उसकी जमकर धुनाई कर दी।
वहां लोहे की एक छड़ी पड़ी हुई थीऔर मारने के लिए मैंने उसे उठाया लेकिन अचानक मुझे लगा कि किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया है। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मेरे पीछे कोई नहीं था केवल दीवार थी। लेकिन इसके बाद मैं अपने ऑफ़िस चला आया। मुझे अपराध-बोध हो रहा था, मैं अपने आपको दोषी मान रहा था। फिर मैंने उस आदमी का इलाज करवाया। लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है। उसी शाम को मैं स्थान गया। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला,गुरुजी ने मुझसे पूछा, "बेटा, क्या तुम्हें अभी भी गुस्सा आता है?"
मैं अपने आपको "नहीं, मैं नहीं, नहीं, मैं नहीं करता" कहने की ट्रेनिंग दे रहा था। मैं इतना अभ्यस्त हो गया कि मैंने तुरंत कहा, "नहीं।" फिर, जो कुछ हुआ था, मैंने उन्हें इसके बारे में बताने का विचार किया। फिर सोचा कि यहां बहुत सारे लोग हैं, मैं बाद में जाकर बताऊंगा कि आज मैंने अपना आपा खो दिया था। उन्होंने मुझे वहां काफ़ी देर तक रोक कर रखा। मैंने उनसे बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने अनसुना कर दिया। जब सभी लोग वहां से चले गए तब भी उन्होंने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। जब मैंने बात करने की कोशिश कीतो उन्होंने
सिर्फ होंठों पर उंगली रखकर कहा कि चुप रहो। बाद में आधे घंटे या 45 मिनट के बाद, उन्होंने कहा, "यदि कोई आपकी मौजूदगी में आपकी नज़र के सामने कैशबॉक्स से कुछ नक़द निकालता है, और फिर जब आप उससे पूछते हैं कि क्या तुमने पैसे निकाले हैं, और वह कहता है कि नहीं,तो आपने जो देखा है उसे भूल जाएं और वह जो कह रहा है, केवल उस पर भरोसा करें"।
(बहुत खूब)
सबसे पहले, मैं यह समझने की कोशिश कर रहा था कि गुरुजी मुझे क्या बताना चाह रहे थे। तब मुझे तुरंत एहसास हुआ कि आज तो यही हुआ था। मैंने उस व्यक्ति को मारा। उसने कहा,"मैंने चोरी नहीं की है।" मुझे पता था कि उसने चोरी की है, क्योंकि सबूत थे। स्टाफ़ के लोग मुझे बता रहे थे और मुझे भी पता था कि उसने चोरी की है। लेकिन भले ही आप अपनी आंखों से देखें और वह व्यक्ति इनकार कर रहा हो, तो उस पर विश्वास करें। उस दिन से मैंने अपने आपसे वादा किया किअब से मेरे सोचने का तरीक़ा ऐसा ही होगा, जैसा गुरुदेव ने बताया।
सवालःक्या इस तरीके ने काम किया?
अशोक जीःयह आज तक काम कर रहा है। मैं उस पर अडिग हूं। यही अब मेरी पर्सनैलिटी बन गई है।
इस तरह एक निर्दय व्यक्ति भक्त में तब्दील हो गया।
गिरि लालवानी भी ऐसे ही इंसान थे, जिन्हें गुरुदेव ने सबक़ सिखाया था। वह अपनी दिलचस्प कहानी ख़ुद सुना रहे हैं।
गिरि जीःहुआ यूं कि मेरा अपनी फैक्ट्री में रोजाना आना-जाना था। वहां एक मज़दूर से कुछ ग़लती हो गई तो मैंने उसे थप्पड़ मार दिया। रात को जब मैं घर वापस आया तो मेरी बहन ने दरवाज़ा खोला और कहा "गुरुजी का फोन आया है।" तो मैंने फोन उठाया और उनसे बात की, प्रणाम किया। गुरुजी ने मुझसे कहा "बेटा, अब तुम अपने आपको बड़ा समझने लग गए हो।" मैंने कहा "गुरुजी, मैं नहीं समझा। 'बड़े' से आपका क्या मतलब है?" उन्होंने कहा, "अब तुम अमीर हो गए हो इसलिए तुमको अपने से नीचे के लोगों को थप्पड़ मारने की छूट मिल गई है। बेटा, कोई बात नहीं, मैं तुम्हारी बांह तोड़ दूंगा।” मैंने कहा "गुरुजी, मुझसे ग़लती हो गई।" उन्होंने जवाब दिया "बेटा, अब यह बात मेरे मुंह से निकल गई है"। तो, मैंने सोचा कि अब तो मैं कुछ नहीं कर सकता, कोई चिंता नहीं, इस बात को भूल जाओ। मैंने फोन रख दिया। मैं डर के मारे 3 दिन तक फैक्ट्री नहीं गया, यह सोचकर कि मेरा हाथ टूट जाएगा। चौथे दिन पिताजी के कहने पर मैं कारख़ाने में गया। मैं अपनी गाड़ी में अपने पिता और चाचा के बीच में यह सोचकर बैठ गया कि इस तरह से बैठने पर मेरे हाथ में फ्रैक्चर नहीं होगा। हम कारख़ाने पहुंचे और मेरे पिता और चाचा कालबादेवी स्थित ऑफ़िस के लिए निकल गए और मुझे वहां अकेला छोड़ दिया और मेरे लिए एक संदेश छोड़ दिया कि अपने चचेरे भाई के साथ घर वापस आ जाओ। मैंने अपने चचेरे भाई को बुलाया तो उसने कहा, "तुम यहां आओ और यहां से हम तुम्हें खार छोड़ देंगे।" मैंने उससे कहा, "कृपया तुम ही यहां आ जाओ क्योंकि गुरुजी ने मुझसे कहा था कि वह मेरी बांह तोड़ देंगे।" भाई ने कहा, "नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा। तुम अपनी स्कूटर लेकर आ जाओ।” मैं अपने चचेरे भाई तक पहुंचने के लिए 10 किमी/प्रति घंटे की गति से स्कूटर चला रहा था। अचानक, मुझे नहीं पता क्या हुआ और मैं अपने स्कूटर से गिर गया और मेरा हाथ टूट गया। मैं समझ गया कि यह गुरुजी ने ही किया था। मेरा कंधा और बायें हाथ में फ्रैक्चर हो गया। मैंने अपने चचेरे भाई को फोन किया। वह वहां आया और मुझे उठाकर घर छोड़ गया। मैंने घर पर दरवाजे की घंटी बजाई और मेरी बहन ने दरवाज़ा खोला और कहा "गुरुजी का फोन आया था।" मैंने फोन लगाया और कहा "गुरुजी, प्रणाम।" उन्होंने कहा "हां बेटा, क्या हुआ?" मैंने कहा, "गुरुजी, आपने वही किया जो आप करना चाहते थे। आपने मेरा हाथ तोड़ दिया।" उन्होंने कहा, ‘मैं सोच रहा था 'बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी।’ तुम तीन दिनों से सोच रहे थे कि सज़ा से बच जाओगे। तुमको क्या लगता है कि गुरु बनाना कोई आसान काम है?” तो यह घटना मेरे साथ हुई है।
दुर्गापुर के किशन मोहन जी ने हमें गुरुदेव से मिले दिशा-निर्देशों के बारे में बताया।
सवालःतो, गुरुदेव ने आपको क्या सिखाया?
किशन मोहन जी: "अब, तुम मेरे पास आए हो। अब बेटा, जो कुछ मैं तुम्हें दूंगा, वही तुम्हें खाना पड़ेगा।” वह मुझसे कहा करते थे, "मैं तुमको अपना आशीर्वाद दे रहा हूं कि तुम कभी भी अपने लिए कोई मदद नहीं मांगोगे और तुम जो कुछ भी खाओगे, वह तुम अपनी मेहनत की कमाई से ही खाओगे, फिर वह चने ही क्यों न हों। मुझे गुरुदेव से जुड़े हुए आज 40 साल हो गए हैं। इन 40 वर्षों में और आज भी, मुझे कभी भी गुरुदेव से अपने लिए कुछ मांगने की चाहत महसूस नहीं हुई। मैं सिर्फ स्थान के भक्तों के लिए मांगता हूं।
अगला सवाल गिरि लालवानी से है। प्रकृति और उसके तत्वों के साथ सामंजस्य रखने के लिएउन्होंने गुरुदेव से क्या सीखा?
गिरि जीः वह कहते थे पेड़ लगाओ, खेती करो और धरती को बचाओ। वह कभी सीधे "पृथ्वी बचाओ" नहीं कहते थे, लेकिन कहते थे, "ज़मीन खरीदो, खेती करो।" वह मुझे फार्महाउस ले जाते थे और मुझसे पेड़ लगवाते थे। उसने मुझे कभी किसी जानवर या किसी कुत्ते को मारने-पीटने, लात मारने की अनुमति नहीं दी, वह मुझसे कुत्ता पालने के लिए कहते थे, खासकर काला कुत्ता। प्रेम और सद्भाव से जियो-यही उनका संदेश था।
चूंकि प्रकृति और उसके तत्व अपनी चेतना के साथ प्रतिक्रिया करते हैं, मुझे लगता है कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं।
देवराज के मामले में प्रकृति को चोट पहुंचाने वाले को उसका वापस भुगतान भी भरना पड़ता है। ऐसा लगता है कि प्रकृति ने उन्हें पलटकर चोट पहुंचाई है। क्या सच में ऐसा हो सकता है?
देवराज बताएंगे।
सवालःअब हम देवराज के उस अनोखे अनुभव को जानेंगे जो उन्हें प्रकृति के साथ हुआ और बदले में उन्हें क्या मिला। क्या हुआ था, आप हमें समझा सकते हैं?
देवराज जी: तो, यह मेरे जीवन के सबसे दिलचस्प अनुभवों में से एक रहा है। और समय के साथ मैंने समझ लिया कि यह चेतना की अवधारणा और उपचार की अवधारणा के साथ जुड़ा हुआ मामला है। मैं आपको उसी संदर्भ में अपना अनुभव बताना चाहता हूं। समय-समय पर हम लोनावला जाते रहते हैं जहां हमारा घर है। और घर में एक बहुत बड़ा बगीचा है जिसमें बहुत सारे पेड़ हैं। पेड़ों की अच्छी देखभाल की ज़िम्मेदारी मैंने उठा रखी थी। साथ ही यह भी कि हमारा परिसर और आसपास भी साफ-सुथरा रहे। और इसमें शामिल था यह सुनिश्चित करना कि पेड़ों को अच्छी तरह से काट-छांट कर रखा जाए। तो, ऐसा ही एक मामला हुआ 5 या 6 साल पहले। मैंने देखा कि एक पेड़ बेतरतीब ढंग से बढ़ गया है और उसकी बड़े पैमाने पर छंटाई की ज़रूरत है। यह पेड़ बहुत सारे कीड़ों को आकर्षित कर रह था इसलिए मुझे इसकी छंटाई बहुत ज़रूरी लगी और मैंने एक स्थानीय माली को पकड़ा। मैंने उसे समझाया कि किस तरह काटना-छांटना है, और अपने सामने ही वह काम करवाया। अगली सुबह जब मैं उठा तो मुझे लगा कि मेरे पूरे शरीर पर किसी ने काटा है। हम दो-तीन सप्ताह वहां रहे। इस बीच मैंने देखा कि कुछ लताएं बेतरतीब ढंग से फैल रही हैं। मैंने फिर से माली को पकड़ा और कहा कि इन लताओं को काट दो ताकि वे ट्यूबलाइट पर न चढ़ें। और मैं देखता रहा कि मैंने जैसा कहा है, वह वैसा ही करे। फिर, अगली सुबह जब मैं उठा, तो मैंने देखा कि मेरे पूरे शरीर पर कीड़ों के काटने के निशान थे। अब इस बार मुझे यह अजीब लगा क्योंकि हमने लोनावला में कुछ रातें बिताई थीं और मुझे आश्चर्य हुआ कि खटमल काटने के लिए 48 घंटे तक इंतज़ार क्यों करेंगे। और मैं सोचने लगा कि क्या इसका उन पेड़ों से कोई लेना-देना है जिन्हें मैंने कटवाया था। हम कुछ दिनों बाद वापस मुंबई लौट आए और मैंने बात को नज़रअंदाज़ कर दिया। लेकिन जब मैं तीसरी बार लोनावला वापस आया, तो मैंने सोचा कि मुझे इसका परीक्षण करना होगा कि इसका संबंध क्या प्रकृति के साथ है या चेतना के साथ है। और मैंने बिना किसी बात पर ध्यान दिए, एक माली को अपने साथ लिया और उसे उसी पेड़ को काटने के लिए कहा। और जैसे ही उसने ऐसा किया, मैंने अपने शरीर में एक अजीब सनसनी महसूस की। और अगली सुबह मैं उठा तो मेरे पूरे शरीर पर काटने के निशान थे। मैंने महसूस किया कि इसका संबंध उस माली को दिए गए मेरे निर्देशों से है, जिसने पेड़ों को काटा था। मैं उस पेड़ के पास गया जिसे मैंने कटवाया था, मैंने हाथ जोड़कर माफ़ी मांगी, वादा किया कि ऐसा फिर कभी नहीं करूंगा। और प्रकृति के साथ यह संबंध इतना मज़बूत था कि अभी कुछ साल पहले, मैं लोनावला के परिसर में शाम की सैर कर रहा था तो इस बार माली ने मुझे बताया कि इतनी हरियाली के कारण वृक्षों के चारों ओर बड़ी संख्या में सांप आते हैं। और मैंने सहज ही उससे कहा कि वह उन पेड़ों को काट डाले। ऐसा कहते ही मुझे अपने बाएं हाथ में एक सनसनी महसूस हुई। मैंने तुरंत अपनी ग़लती सुधारते हुए उससे कहा, "पेड़ों के बारे में मुझे कुछ मत कहो। तुमको जो कुछ भी करना है, करो।" क्योंकि प्रकृति में बाधा डालने में, मैं कोई भूमिका नहीं निभाना चाहता था।
क्या प्रकृति ने देवराज को खटमल या किसी कीड़े के रूप में काटा? या देवराज की उच्च चेतना उन्हें सबक़ सिखाना चाहती थी? क्या उनकी आत्मा ने ख़ुद को सजा दी? इन सवालों की थाह लेना आसान नहीं है और जवाबों को समझना और भी मुश्किल काम है। मुझे विश्वास है कि इस कहानी में गहरे अर्थ और अलौकिक शिक्षाएं छिपी हैं।
मैंने रवि त्रेहन जी से मृत्यु पर गुरुदेव के विचार जानने चाहे। उन्होंने जो कुछ सीखा-समझा उसे यहां साझा कर रहे हैं।
सवालःआपके विचार से मृत्यु के बारे में उनका क्या दृष्टिकोण था?
रवि जीः सच कहूं तो मेरी उनसे जो भी बातचीत हुई उसके अनुसार मृत्यु का वास्तव में कोई अस्तित्व ही नहीं है। बस पांच तत्व बिखर जाते हैं। मृत्यु सेउनका यही मतलब था।
सवालःउनका यही मतलब था, या आपको लगता है कि उनका यही मतलब था?
रवि जीः यही बात उन्होंने कई बार सरल और सीधे शब्दों में साझा की थी कि मृत्यु जैसी कोई बात मौजूद नहीं है।और उन्होंने कई मौक़ों पर हमारे पिछले जन्मों के कुछ उदाहरणों को बताकर यह साबित किया था कि एक निरंतरता बनी हुई है, इसमें कोई रुकावट नहीं आई है।
गुरुदेव ने मुझे एहसास कराया कि मृत्यु के बाद आत्मा तो निरंतर बनी रहती है लेकिन अधिक सूक्ष्म स्वरूप में होती है!
मुझे शरीर से बाहर के कई अनुभव कराकर, उन्होंने मुझे स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के बीच के अंतर को समझाया। सीख यह थी कि हमारा यह भौतिक अवतार, हालांकि कहीं अधिक बोझिल था, पर अत्यंत आकर्षक गुणों वाला है। आपके सूक्ष्म शरीर के लिए आपके स्थूल शरीर को एक साधन की तरह काम करना होगा, क्योंकि यही ऊर्जा को बेहतर ढंग से आकर्षित कर सकता है।
और इसीलिए इसे शक्ति, गुणवत्ता और कार्यसिद्धि से परिपूर्ण बनाना होगा। इस शरीर का उपयोग जिस तरह से गुरुदेव ने किया, उसी तरह करने से ब्रह्मांड के किसी भी व्यक्ति की आत्मिक स्थिति में सुधार आ सकता है।
डॉ शंकरनारायण का एक वाक्य सुनें। छह शब्दों में उन्होंने जो व्याख्या की है, उनसे छह अध्याय बन सकते हैं। वह जो कह रहे हैं, उसे पूरे ध्यान से सुनें।
डॉ शंकरनारायण जी: आप स्वयं शिव बन सकते हैं। आप स्वयं शिव बन सकते हैं। आप स्वयं शिव बन सकते हैं। यही उन्होंने बताया।
यह संपादन की त्रुटि नहीं, प्रभाव पैदा करने के लिए ही दोहराव किया गया है।
गुरुदेव वास्तव में इस स्थिति में पहुंच गए थे और इसीलिए लोगों से इसकी सिफ़ारिश करने का अधिकार भी रखते थे। दुर्भाग्य से उस समय हममें से अधिकतर लोग इसे दूसरों के साथ साझा करने वाला एक वाक्य समझते रहे। हम यह समझ ही नहीं पाए कि इसे हमें अपने जीवन में भी उतारना है। हमें इस लक्ष्य को हासिल करना है, और दूसरों को भी सिखाना है।
उनकी शिक्षाओं के सैकड़ों अनुभवों और वर्षों के चिंतन के बाद अब हम इस बात को समझ पाए हैं कि हममें भी शिव बनने की शक्ति और क्षमता है।
अंत में, कई बार रपटने, ठोकरें खाने के बाद, दूसरों के साथ अपना अनुभव बांटने की तीव्र इच्छा के साथ, हमने अपने भीतर देवत्व को देखना शुरू कर दिया है।
एक अति-बुद्धिमान दिमाग़ (इंसान) जो गुरुदेव जैसे विकसित जीव के संपर्क में आ गया है, वह अपनी इस यात्रा को समाप्त नहीं करना चाहेगा। उम्मीद है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी दूसरों की मदद करने और उन्हें राहत पहुंचाते रहने का बीड़ा उठायगी, जिससे वह सब स्वयं भी आध्यात्मिक सीढ़ी के ऊंचे पायदान पर चढ़ते जाएंगे।
इतिहास उन महान संतों से भरा पड़ा है, जिनके पास केवल कुछ ही पीढ़ियों के विकसित शिष्य हैं, जो धर्म के प्रति श्रद्धा और प्रेरणा के पात्र बन गए हैं। दुर्भाग्य से, अधिकांश धार्मिक प्रमुख अपने गुरुओं के अनुभवों का अनुकरण नहीं कर पाते हैं। केवल उनकी शिक्षाएं रटते रहते हैं।
इसके लिए मैं प्रार्थना करता हूं कि गुरुदेव आध्यात्मिक विकास और उपलब्धियों की क्षमता के प्रशिक्षण और दोहन का क्रम जारी रखें।
उमा प्रभु मेरी भावनाओं को दोहरा रही हैं।
सवालःअब वह भौतिक स्तर पर आगे बढ़ चुके हैं, वह अपने पीछे अनेक भक्त,अनुयायी और शिष्य और ऐसे लोगों को छोड़ गए हैं जो उन पर दृढ़ता से विश्वास करते हैं और जिन लोगों ने गुरुदेव की मदद से आध्यात्मिक संपत्ति अर्जित कर ली है। तो अब आगे क्या होना चाहिए? आपको क्या लगता है कि हमें इसे कैसे आगे बढ़ाना चाहिए? क्या हमें केवल श्रद्धा से उनका स्मरण करना चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिए या अपनी व्यक्तिगत साधना करनी चाहिए?
उमा प्रभु जी: मुझे लगता है कि हमें उनकी विरासत को आगे बढ़ाना चाहिए। गुरुदेव के ज्ञान का महासागर तो अब भी मौजूद है और हम सबने इसका अहसास किया है। मुझे लगता है कि यह बहुत जरूरी है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इसके बारे में जानें। रिले रेस की तरह हमें इसे आगे बढ़ाते जाना है।
बहुत बढ़िया
एक कम्पस आपको सही दिशा दिखाता है चाहे आप कहीं भी मुड़ें। यदि आप रास्ते से भटक जाते हैं, तो यह आपका मार्गदर्शन करता है। चुनौती कम्पस पर भरोसा करने की है, न कि गलत दिशा के भुलावे में आने की।
इस श्रृंखला के विभिन्न पॉडकास्ट में गुरुदेव की शिक्षाएं बताई गई हैं। उनको सीखना, समझना और अमल में लाना आपके लिए किसी पहेली को सुलझाने की तरह होगा। इस ऑडियो-जीवनी में आपके सीखने के लिए और अपने जीवन को परिवर्तित करने के लिए बहुत कुछ है।
गुरुदेव हमारे पथप्रदर्शक थे और अभी भी हैं। उन्होंने हमारे लिए मार्ग पर चलना आसान बना दिया है।
सूने सब रास्ते पड़े हुए थकन से चूर
सूने सब रास्ते पड़े हुए थकन से चूर
राही कौन बताएगा मंज़िल कितनी दूर
मंज़िल कितनी दूर।