The Guru of Gurus - Audio Biography

भावनाएं निभाएं, भावहीन होकर

October 22, 2021 Gurudev: The Guru of Gurus
The Guru of Gurus - Audio Biography
भावनाएं निभाएं, भावहीन होकर
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इमोशनल होना आम बात है। भावनाओं को अभिनय करना कितना आसान है? अभिनेता एक क्लैपर की क्लिक पर रो सकते हैं। सामान्य जीवन में यह कितना आसान है?
भावनाओं का प्रदर्शन करना गुरुदेव ने कैसे सीखा? क्या हम उस पर एक डिट्टो कर सकते हैं?
भावशून्य होना हमारे मन को कैसे स्थिर कर सकता है?
सूत्र में किस्सों को उठाएं - भावनाओं को भावहीन रूप से बजाना।

गुरुदेव ऑनलाइन गुरुओं के गुरु - महागुरु की ऑडियो बायोग्राफी प्रस्तुत करता है।

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आप गुरुदेव की जिंदगी और उनकी विचारधारा के बारे में इस वेबसाइट पर भी पढ़ सकते हैं - www.gurudevonline.com





क्या हमारी भावनाएं हमारी आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालती हैं, रुकावट पैदा करती हैं? गुरुदेव ने उन्हें क़ाबू करने के लिए इतनी कोशिश क्यों की? आप और मैं इस रणनीति को अपने जीवन में कैसे उतार सकते हैं?

 जानिए...

भावनाएं निभाएं, भावहीन होकर

उत्तर भारत के एक छोटे से गांव का एक नौजवान बॉलीवुड में अभिनेता बनना चाहता था।

एक्टिंग का कोर्स करने के लिए उसने पुणे फ़िल्म इंस्टीट्यूट में आवेदन-पत्र दिया। जो खारिज़ हो गया।

 

बाद में,  हालात और नियति ने उन्हें दुनिया के महानतम अभिनेताओं में से एक बना दिया। एक ऐसा व्यक्ति जिसने भावहीन होकर भावनाओं को निभाने की कला में महारत हासिल की!

गुरुदेव ने भले ही अपनी जीवन-यात्रा किसी भी अन्य सामान्य व्यक्ति की तरह ही आरंभ की हो, लेकिन उनकी यात्रा एक महानायक के रूप में समाप्त हुई।

आइए देखें कि उन्होंने भावनाओं पर क़ाबू पाने के अपने लक्ष्य को कैसे हासिल किया। इस धरती के सामान्य लोगों के लिए यह एक लगभग असंभव कार्य है। मुझे ही देख लें। मैं सालों से कोशिश में लगा हुआ हूं लेकिन अब तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाया हूं!

हमने सबसे पहले एफसी शर्मा जी से साक्षात्कार किया। वह गुरुदेव के पुराने कार्यालय सहयोगी थे और 70 के दशक की शुरुआत में महागुरु से उनकी मुलाक़ात हुई थी। 

वह दो रोचक प्रसंग बता रहे हैं। पहला - गुरुदेव ने हमीरपुर के अपने शिष्य, स्वर्गीय बग्गा जी की परीक्षा भेस बदलकर या औघड़ के रूप में ली। औघड़ भेस बदलने में माहिर होते हैं। दूसरा प्रसंग उनकी माताजी से जुड़ा हुआ है। गुरुदेव ने अपनी माताजी के साथ बेटे के रूप में नहीं, बल्कि पराये व्यक्ति की तरह व्यवहार किया।

 

एफसी शर्मा जीःगुरुजी भावुक नहीं थे, क्योंकि यदि कोई गुरु स्वयं भावुक होगा, तो वह सभी के साथ समान न्याय नहीं कर सकता, भले ही वह चाहता हो कि उसके लिए सभी एक समान हों। और जब आप सेवा कर रहे होते हैं, तो अच्छा या बुरा व्यक्तित्व नहीं होता है। अगर ऐसी भावना मुझमें है तो मैं इलाज ठीक से नहीं कर पाऊंगा। उदाहरण के लिए, मैं एक व्यक्ति से अच्छी तरह से बात करूंगा और दूसरे के साथ अशिष्ट व्यवहार करूंगा, "वापस जाओ, तुम्हारा नंबर अभी नहीं आया है।"

हमीरपुर में गुरुजी के स्थान पर एक घटना घटी। वह स्थान आज भी है। गुरुजी हिमाचल के दौरे पर थे और वह देखना चाहते थे कि स्थान पर क्या चल रहा है। तो,उन्होंने एक बूढ़े आदमी का वेष धारण कर लिया जो छड़ी के सहारे से चल रहा था। बूढ़ा बनकर वह लाइन में खड़े होकर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे। और जब उनकी बारी आई,तो उन्हें लाइन से बाहर निकलने के लिए कहा गया और बताया गया कि उनकी समस्या बाद में सुनी जाएगी। गुरुजी वहां से निकल गए और फिर उन्होंने सेवक से पूछा "तुमने सोचा कि मैं बूढ़ा हूं? वो मैं था, तुम्हारा गुरू। ऐसी सेवा करने का क्या फायदा जिसमें आप लोगों को उनके कपड़ों और उनकी उम्र और शारीरिक स्थिति के आधार पर भेदभाव करते हैं?" सेवक को बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। यह एक व्यावहारिक उदाहरण गुरुजी ने हमें बताया था। वह हमें सिखाने के लिए ये सब करते थे। इस प्रसंग से उन्होंने हमें सिखाया कि भले ही आप 1000 लोगों की सेवा कर रहे हैं लेकिन यदि हम एक भी व्यक्ति को ठुकरा देते हैं, या हम उस व्यक्ति को टालते हैं तो हमारी पूरी सेवा बेकार है। ऐसी सेवा का कोई मतलब नहीं। और इसलिए वह कहते थे कि एक भावुक व्यक्ति सही निर्णय नहीं ले सकता। वह किसी न किसी तरफ झुक जाएगा। पक्षपात करेगा। आध्यात्मिकता के क्षेत्र में भावनाओं की कोई क़ीमत नहीं होती। कोई दोस्त नहीं, कोई रिश्तेदार नहीं, कोई दुश्मन नहीं। उनका एक ही उद्देश्य था-परेशानहाल लोगों की समस्याओं का समाधान किस तरह से किया जाए। 

सवालःकृपया हमें उस घटना के बारे में बताएं जब गुरुदेव की माताजी उपचार के लिए स्थान पर आई थीं।

एफसीशर्माजीः यह घटना 1974की है। गुरुदेव की मां गुड़गांव आईं। उस समय गुरुदेव शिवपुरी में दो कमरे के किराये के मकान में रह रहे थे। वहीं से  सेवा शुरू हुई थी। गुरुदेव की मां उस स्थान पर आईं जहां सेवा चल रही थी। गुरुजी बाहर खड़े थे। उनकी मां ठीक से चल नहीं पा रही थीं। वह बाहर आई और गुरुजी का नाम लेकर उनसे बोलीं, "कृपया मेरा भी इलाज कर दो।" गुरुजी ने उत्तर दिया "मां, लाइन में लग जाओ। अंदर मेरे लड़के तुम्हारा इलाज कर देंगे।”यह सुनकर हम स्तब्ध रह गए कि गुरुजी ने ऐसा क्यों कहा। शाम को जब गुरुदेव से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, "मेरी मां ने मुझे जन्म दिया है,मेरी देखभाल की है। लेकिन मैं उसका इलाज नहीं कर सकता,अगर मैं कर सकता, तो भी मैं उसका इलाज नहीं करूंगा।" उन्होंने समझाया कि वह माताजी और उनके पूर्व-जन्म के जीवन के बारे में सब कुछ जानते हैं और वह जो कर रही हैं वह भी मुझे पता है और भविष्य में क्या होगा इसके बारे में मुझे भी पता है। आप केवल वही देखते हैं जो आपकी आंखों के सामने हो रहा होता है, लेकिन मैं भूतकाल भी देख सकता हूं। मैं यह भी जानता हूं कि अगर मैं अपनी मां का इलाज करता हूं तो उसे इसका परिणाम भुगतने के लिए दोबारा जन्म लेना होगा।

 

 

अपने परिवार के सदस्यों के प्रति भाई-भतीजावादी या पक्षपातपूर्ण नहीं होना चाहिए। यह उन्होंने खुद भी दिखलायाऔर हमें भी सिखाया। व्यक्तिगत संबंधों को वरीयता नहीं दी जानी चाहिए। हमारी व्यक्तिगत शिकायतों की चर्चा कभी भी आगंतुकों से नहीं करनी चाहिए। ये कड़े नियम थे जिनका उन्होंने पालन किया और हमसे भी उम्मीद की। 

 

पप्पू जी और गग्गू जी,  स्थान के चार मसखरों में से दो थे। पप्पू जी और गग्गू जी आगे अपनी बात कह रहे हैं। वे एक और घटना साझा करते हैं जहां गुरुदेव ने भावनाओं के वशीभूत हुए बिना, निष्पक्ष ढंग से काम किया।

 

पप्पू जीः हरियाणा में रहने वाले उनके भाई की मृत्यु हो गई। आप हरियाणा गए हैं, है ना? वह वहां भाई का अंतिम संस्कार करने गए और जब वापस स्थान पर आए तो किसी ने उनके सामने मिठाई/लड्डू से भरी थाली रख दी थी। उन्होंने उस व्यक्ति को आशीर्वाद दिया और लोगों के बीच मिठाई बंटवा दी। यह सबसे कठिन काम था जिसे कर पाना हर किसी के बस की बात नहीं। 

गग्गू जीःउन्होंने अपनी तमाम भावनाओं को नियंत्रित किया।

पप्पू जीः यहबहुत मुश्किल काम है।

 

अपने बच्चों से विरक्त होना एक ऐसा काम है जिसे बहुत कम लोग ही कर पाते हैंलेकिन गुरुदेव सर्वज्ञ होने के साथ-साथ इस काम में भीमाहिर थे।

उन्होंने अपने परिवार को अपने हांड-मांस के टुकड़े के रूप में नहीं, बल्कि अपने पिछले जन्मों से जुड़े कई अवतारों के रूप में माना। लोग अक्सर कहते हैं कि उनका सबसे बड़ा बेटा पिछले जन्म में उनके दादा और छोटा बेटा पिता थे।

अपने ही घर में उन्हें जन्म देने के बावजूद और दूसरे जन्म में भी उनसे जुड़ाव होने के बावजूद, वह उनके प्रति आसक्त नहीं थे, लेकिन अपार स्नेह अवश्य था। 

उनकी तीन बेटियों में से सबसे बड़ी बेटी के साथ उनका अतीत का आध्यात्मिक संबंध मालूम होता है, जबकि अन्य दो पिछले जन्म की उनकी रिश्तेदार थीं।

पूर्व में कई संतों और पैगंबरों ने अपने परिवारों में क़रीबी रिश्तेदारों को जन्म दिलवा कर उन्हें एक उपयोगी जीवन प्रदान किया है। इस तरह से उन्होंने उनके प्रति अपने व्यक्तिगत कर्ज़ों को चुकाया है।

सुनिए पूरन जी क्या कहते हैं

 

सवालःवह अपने बेटे-बेटियों, अपनी पत्नी, भाई-बहनों, अपनी भाभीके साथ किस तरह का बर्ताव करते थे? परिवार के साथ उनका संबंध कैसा था, क्या वह एक पारिवारिक व्यक्ति थे? क्या उन्हें उनसे बहुत लगाव था?

पूरन जी: पूरी तरह से अनासक्त थे। 

सवालःऔर उनका बहनों और भाई के साथ रिश्ता कैसा था? .

पूरन जी:वैसा ही। वह हर चीज़ से बिल्कुल कटे हुए थे। एकदम जुदा।

 

पूरन जी एक दशक से भी अधिक समय तक गुरुदेव के घर में ही रहे और उन्हें सारी बातें पता थीं। चूंकि दोहरा व्यवहार करना उनकी आदत में शामिल नहीं था, इसलिए मैं उन पर आसानी से भरोसा कर सकता हूं। 

गुरुदेव का अपनी पत्नी के साथ, जिन्हें हम माताजी कहते थे, बड़े आत्मीय संबंध थे। सेवा में उनकी गहरी भागीदारी और इसके साथ आने वाले अलगावों के कारण उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा। माताजी घर पर और स्कूल में, जहां वह पढ़ाती थीं - बहुत मेहनत करती थीं। गुरुजी उनके प्रति कृतज्ञ रहते थे, लेकिन अलगाव की भावना तो उनके संबंधों में शामिल थी ही। माताजी के विचार सुनिए।

 

माताजीःउन्होंने पति के रूप में अपने सभी कर्तव्यों का पालन किया। मुझे घर को लेकर कभी शिकायत नहीं करनी पड़ी। बच्चों को कभी नहीं लगा कि वह उन्हें प्यार नहीं करते। कभी-कभी, हमारे घर में रहने वाले कुछ लोग उनसे कहते थे कि  वह अपने बच्चों से प्यार नहीं करते हैं, तो वे जबाव देते, "बेटा,मैं नहीं जानता कि प्यार को कैसे दिखाया जाता है। लोग गले मिलते हैं और अपना प्रेम दिखाते हैं लेकिन मैं आपके पास आ जाता हूं।" वह केवल 10 मिनट के लिए ही बच्चों के साथ बैठ जाएं तो भी उन्हें शिकायत नहीं होती थी कि पिता उनसे प्यार नहीं करते हैं। वह बच्चों से अपनी बातों से प्यार जताते थे। गुरुदेव ने कहा कि वह दूसरे अभिभावकों की तरह नहीं हैं। उन्होंने कभी अपने प्यार का इज़हार या दिखावा नहीं किया। वह उन्हें भीतर से प्यार करते थे।

 

जहां तक भूमिका निभाने का सवाल था वह सबके थे और फिर भी किसी के नहीं थे। प्रत्येक शिष्य और भक्त को लगता था कि वह गुरुदेव का प्रिय है। यदि एक भावनाहीन इंसान हज़ारों लोगों के मन में उनके क़रीब होने का भाव जगा सकता है तो  यह इस बात का संकेत था कि समाज में लोगों द्वारा दिखाए जा रहे प्रेम की तुलना में उनकी स्नेह भावना की पहुंच कहीं अधिक थी। वे लोग तो कुछ गिने-चुने रिश्तेदारों और मित्रों तक ही अपनी प्रेम भावनाएं पहुंचाते हैं, जबकि गुरुदेव का दायरा बहुत बड़ा था। 

उनका मानना ​​था कि वह सभी जीवन रूपों का हिस्सा थे और फिर भी किसी से जुड़े नहीं थे। लेकिन निश्चित ही उन्होंने जो तरंगें लोगों तक प्रसारित कीं उसे लोगों ने महसूस किया और उसे प्रेम का नाम दिया। 

उन्होंने लोगों से लगाव नहीं रखा, परंतु परस्पर संवाद के माध्यम से सभी लोगों के लिए प्यार,परवाह और सहानुभूति व्यक्त करते रहे।

गुरुदेव के पुराने पहरेदारों में से एक राजी शर्मा,गुरुदेव के भावनात्मक स्तर और प्रेम संबंधी विचारों का आकलन किस तरह से करते हैं, आइए इस चर्चा से जानें।

 

सवालःमेरी व्यक्तिगत राय है कि भावनाएं हमारी आध्यात्मिक प्रगति में एक बड़ी बाधा हैं। गुरुदेव के भावनात्मक स्तर पर आपका क्या कहना है?

राजी जीः मैं इसे दो अलग-अलग तरीक़ों से देखता हूं। एक तो गुरुजी भावनाओं को बिना भावुक हुए प्रदर्शित करते थे या फिर वह इस तरह से अपनी भावनाएं व्यक्त करते थे कि व्यक्ति उस प्रेम को महसूस कर सकता था। भले ही आप इसे इमोशन कहें, लेकिन मैं नहीं मानता। आप प्रेम को एहसास से कैसे अलग करेंगे?

सवालःमेरे अनुसार प्यार, किसी व्यक्ति के प्रति आपकी परवाह और एहसास है। उस व्यक्ति के प्रति भावुक हुए बिना इसकी अभिव्यक्ति हो सकती है। वह प्रेम अनंत है और इसका वर्णन उस तरह से नहीं किया जा सकता है जैसा कि शैली या शेक्सपियर ने सॉनेट में किया है।  शेक्सपियर ने कहा है, “Love is not love which alters when it alteration finds, or bends with the remover to remove” यानी प्रेम वह नहीं है जो समय या व्यक्ति के साथ बदल जाए। उस तरह का प्यार सिर्फ मोह या आकर्षण होता है। और 'मोह' लगाव होता है लेकिन सच्चा प्यार कुछ और होता है।

राजी जीः देखिए, 'मोह' अलग होता है। यह लगाव की गहरी भावना है। लेकिन मैं कहूंगा कि उनके रोम-रोम से प्यार झलकता था।

सवालःक्या आप भावनात्मक प्यार के बारे में बात कर रहे हैं या आप वास्तविक, महसूस करने वाले प्यार के बारे में बात कर रहे हैं?

राजी जीः असली, परवाह करने वाला,सार्वभौमिक। आप इसे महसूस कर सकते थे। उनकी बॉडी लैंग्वेज, उनका अंग-अंग, रोम-रोम यह बताता कि वह आपसे प्यार करते है।

सवालःकोई अन्य भावना आपने उनमें देखी, जैसे ... क्या आपने देखा कि उसमें ईर्ष्या, क्रोध जैसी भावनाएं हैं?

राजी जीः गुस्सा कभी नहीं किया। देखिए, ये कुछ ऐसा था...वह कहते थे, 'पुत्तर गुस्सा न रक्खी, पर फुंकारना न छड्डी'- बिना ज़हर वाले सांप की तरह फुंफकारना न छोड़ें। यानी भले ही किसी को काटकर अपने ज़हर से नुक़सान न पहुंचाएं, पर फुंफकारना न छोड़ें, वरना लोग आपको रौंदकर चले जाएंगे। 

सवालःतो, क्या आपने कभी किसी के साथ जुड़ाव महसूस किया है, जैसा कि आपके साथ दिखाई देता है। मैंने आपकी और उनकी बातचीत से ऐसा महसूस किया कि वह आपसे बहुत क़रीब से जुड़े थे। लेकिन आज मुझे लगता है कि यह शायद उनका आपके प्रति अनुराग था। आपका क्या कहना है?

राजी जीः हां, अनुराग ही था।

 

आइए हम गुरुदेव के बारे में और अधिक जानने के लिए वापस तीन मसखरों के पास लौटते हैं।

याद रखिए, इन महानुभावों ने अपनी जवानी के बहुत सारे दिन गुरुदेव के साथ बिताए हैं और उनके जीवन को किसी एक्स-रे की तरह देखा। 

जब गुरुदेव के जीवन इतिहास की बात निकलती है, तो उनकी राय निश्चित रूप से बड़ा वज़न रखती है।

 

गग्गू जीः  वह एक पिता की तरह थे,एक दोस्त की तरह थे,आप कुछ भी कह सकते हैं। वह बहुत आज़ादख्याल, खुलकर बोलने वाले इंसान थे।

पप्पू जीः हां, यह सच है। वे बहुत ही आज़ाद ख्याल के, बहुत अच्छे इंसान थे। हमसे खुलकर और दोस्त के रूप में बात करते थेऔर कभी-कभी वह हमसे गुरुदेव की तरह भी बात करते थे। वह कहते,  “मुझे अपना काम करने दो। मुझे आराम करने दो। मुझे बहुत सारे लोगों के काम निपटाने हैं।" वह हमसे हिंदी में नहीं, पंजाबी में बात करते थे।

निक्कू जीः वह गुणों की खान थे। लेकिन अगर मुझे उनके किसी एक गुण को हाईलाइट करना हो तो मुझे लगता है कि वह बहुत केयरिंग यानी परवाह करने वाले इंसान थे। इसमें कोई दोराय है ही नहीं। मैंने उनमें जो ख़ासियत देखी,वह यह थी कि उनसे मिलने के लिए 50,000या 1लाख लोग आए हों, या 500लोग। वह उन सभी को यह एहसास दिलाते थे कि वह सभी को समान रूप से प्यार करते हैं। और उनसे मिलने वाला हर एक व्यक्ति संतुष्ट महसूस करता था। आज तो हम अपने बच्चों तक को यह एहसास नहीं दे पाते हैं।

पप्पू जीः वह इंसान को अपनेपन का एहसास देते थे।

निक्कू जीः अगर कोई इंसान उससे एक बार मिल ले, तो वह उन्हें ज़िंदगी भर नहीं छोड़ पाएगा। एक और ख़ास गुण था उनमें।  देखिए वह हम सभी के गुरु थे। कम से कम हमारे लिए उनसे ऊपर कोई नहीं था। उनका एक परिवार भी था, परिवार में उनकी बड़ी बहनें थीं। लेकिन वह परिवार में अपने बड़ों के साथ जिस तरह से संबंध बनाकर रखते थे कि हम सबको उनसे सीख मिलती थी।

 

गुरुदेव का अपने साले के साथ, जो कि निक्कू जी के पिता थे,  बहुत निर्मल रिश्ता था। ऐसा ही नाता उनके बड़े चचेरे भाइयों के साथ भी था। उन्होंने छोटे की भूमिका बहुत अच्छे ढंग से निभाई!

निक्कू अपनी बात जारी रखते हैं। 

 

निक्कू जीःवह सबकी बहुत चिंता, बहुत परवाह करते थे। वह सबका ख्याल रखते थे। मसलन, यदि किसी शिष्य की पत्नी ने आकर अपने पति के बारे में गुरुजी से शिकायत कर दी, तो गुरुजी उस शिष्य को डांटते और बहू को चिंता न करने का आश्वासन देते। वह अपनी बहुओं के हक में खड़े रहते थे। 

 

उनकी भूमिका किसी लिखी हुई स्क्रिप्ट जैसी होती थी। अगर कोई महिला बहू के रूप में उनके सामने आती तो वह उसका पक्ष लेते थे, लेकिन अगर वह ख़ुद को उनकी बेटी मानकर आए, तो उनका व्यवहार अलग होता था।

शिवरात्रि से पहले की बात है। उन दिनों वह महिलाओं से नहीं मिलते थे, लेकिन मेरी पत्नी उन्हें प्रणाम करने पहुंची। गुरुदेव ने उससे मिलने से इनकार कर दिया। मैं उनके कमरे में गया। मैं उनके नियम को परखना चाहता था। मैंने कहा, "जी,  आपकी बेटी आपसे मिलना चाहती है।" और उन्होंने कहा, "बिल्कुल,  उसे अंदर आने दो।"

शंभू जी के पुत्र पप्पू शर्मा,  जिन्हें गुरुदेव ने कथोग में सेवा के लिए रखा था,  और बाद में उन्होंने ज्वालाजी में सेवा करनी शुरू कर दी थी, हम अब उनसे बातचीत करेंगे। उन्हें प्यार से पप्पू पहाड़िया कहा जाता है जिसका अर्थ है पहाड़ों वाले पप्पू। वह गुरुदेव के दत्तक पुत्रों में से थे और गुरुदेव के घर में बिताए शुरुआती सालों को याद करते हैं।

 

पप्पू जीः वह हमारे गुरुजी थे।हमें उनसे हर तरह का प्यार मिला-दादा के रूप में, पिता के रूप में, भाई और दोस्त की तरह भी। जब मैं मुश्किल से 13-14साल का था, तो उन्होंने मुझे वैसे ही सबकुछ सिखाया जैसे एक किशोर को सिखाया जाना चाहिए। और जब मेरी उम्र कुछ बढ़ गई, तो उन्होंने मुझे एक दोस्त के रूप में देखना और मार्गदर्शन करना शुरू कर दिया।1982में मुझे पता चला कि 'गुरु'शब्द का सही अर्थ क्या है।

 

दिवंगत कैप्टन वी.पी शर्मा ने उनकी अलग-अलग भूमिकाओं को अच्छी तरह से समझा। गुरुदेव  पर उनकी अगाध श्रद्धा थी। लेकिन जब उन्होंने इसी इंसान को एक पिता के रूप में देखा तो उनका व्यवहार एक मनमौजी पुत्र की तरह हो गया। वह गुड़गांव के कई प्रशासकों, अधिकारियों के व्यवहार की आलोचना करते थे, उनसे बहस करते थे और उनसे टकराव भी हो जाता था। गुरुदेव के साथ बात करते समय उन्हें बातचीत के शिष्टाचार का ध्यान नहीं रखना पड़ता था। गुरुदेव उनकी हरक़तों पर केवल मुस्कुरा देते थे। यदि जीवन की वास्तविक फ़िल्म पर कोई ऑस्कर पुरस्कार दिया जाता, तो गुरुदेव हर साल सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड पाने के हक़दार होते। 

अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाने के लिए गुरुदेव ने कोई दवा नहीं ली थी, काफ़ी अभ्यास के बाद उन्होंने यह मुक़ाम हासिल किया था। क्रोध को क़ाबू करना उनके लिए भी कोई मामूली काम नहीं थाठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले आए कई संतों के लिए नहीं था। आध्यात्मिक जीवन की उनकी दूसरी पारी कहीं अधिक सफल थी क्योंकि उन्होंने पहले ही बड़ी मेहनत कर ली थी। 

गुरुदेव के खेत की देखभाल करने वाला व्यक्ति एक पूर्व-पहलवान था। उन्हें पहलवान जी के नाम से ही जाना जाता था। स्थान के लिए खेत से ही दूध और सब्ज़ियां आती थीं। इस पहलवान ने गुरुदेव के साथ बहुत समय बिताया था। अब ज़रा उनकी बात सुनिए। 

 

पहलवान जीःगुरुजी दुनिया भर के लोगों का दुख-दर्द बांटते थे, कम करते थे, लेकिन अपना दर्द किसी से नहीं बांटते थे।

सवालःउन्होंने अपना दर्द कभी साझा नहीं किया?

पहलवान जीः नहीं 

सवालःक्या आपने कभी ऐसा महसूस किया कि वह दुखी हैं?

पहलवान जीः उन्होंने हमें कभी नहीं जताया वह दुखी हैं। अगर वह किसी पर नाराज़ भी होते, तो केवल गुस्सा करने का नाटक करते थे। 

 

गुरुदेव के अधिकतर भक्त गांवों और क़स्बों में रहने वाले थे और वे नियमित रूप से आते थे। उनकी सामाजिक और व्यावसायिक पृष्ठभूमि अलग-अलग थी। वे अक्सर स्थान पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में अपनी सेवा करने का अनुरोध करते थे। दुर्भाग्य से, कभी-कभी भलाई करने वाले भी गलतियां करते हैं,  और कभी-कभी उनमें घमंड भी भरा होता है।

गुरुदेव स्थान पर आने वाले भक्तों के साथ किसी भी तरह दुर्व्यवहार सहन नहीं कर सकते थे। जब कभी उन्होंने ऐसा देखा,  तो उन्होंने गलती करने वाले सेवादारों को फटकार भी लगाई। कान खिंचाई होते ही उनका व्यवहार सुधर जाता था। 

स्वर्गीय एफसी शर्मा जी की बातों से इसकी पुष्टि होती है। हालांकि इस बातचीत में आवाज़ अच्छी तरह से नहीं आ रही है, लेकिन इसमें जो बातें कही गईं हैं, वे अनमोल हैं।

 

सवालःगुरुजी की भावनाओं के बारे में आप क्या बता सकते हैं?

एफसी शर्मा जीःगुरुजी अपनी भावनाओं को तभी प्रकट करते थे जब सेवा के दौरान उन्हें कुछ गड़बड़ियां दिखाई देती थीं।

सवालःजब कोई सेवा के दौरान गलतियां करता था, तो वह भावुक हो जाते थे?

एफसी शर्मा जीःजी, वरना उनमें ऐसी कोई भावना नहीं थी।

सवालःकोई भावना नहीं? उदास या परेशान नहीं होते थे?

एफसी शर्मा जीःउन्हें किसी व्यक्ति को उसकी ग़लती पर डांटना भी होता, तो उसे किनारे ले जाकर फटकारते थे, सब लोगों के सामने नहीं। 

सवालःलेकिन मुझे तो वह सबके सामने डांटते थे?

एफसी शर्मा जीःइसका एक कारण था।

सवालःक्या?

एफसी शर्मा जीःकुछ कर्म ऐसे थे जिनकी सफ़ाई जरूरी थी। वह भावुक व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने लाभ-हानि की कभी परवाह नहीं की।

 

इंटरव्यू के दौरान जब मैंने कहा कि गुरुदेव मुझे सबके सामने डांटते थे, तो एफसी शर्मा जी ने शानदार जवाब दिया था लेकिन उनकी आवाज यहां साफ़ सुनाई नहीं दे रही है। दरअसल, शर्मा जी ने कहा कि गुरुदेव मुझे मेरे नकारात्मक कर्म से छुटकारा दिलाने में मदद करने के लिए ऐसा करते थे। और मैं भी इस सच से वाक़िफ़ था। क्योंकि गुरुदेव के एक बहुत ही प्रतिभाशाली शिष्य ने मुझे सिखाया कि अगर मुझसे कुछ ग़लत होता है, तो मुझे स्वेच्छा से गुरुदेव से सज़ा मांगनी चाहिए। और जब मैंने ठीक वैसा ही किया तो महागुरू ने मुझे कड़े शब्दों में फटकारा और पूछा, "तुमको यह किसने सिखाया?"उनका इतना ही कहना सत्यता का प्रमाण था। 

एक अन्य शिष्य नितिन गाडेकर ने गुरुदेव के क्रोध पर अपनी बात कही और बताया कि उन्होंने इसे किस तरह से महसूस किया। उनकी व्यवहार-कुशलता को एक तरफ रख दें, तो उनकी बातों में दम है।

 

सवालःआपने अभी कहा कि आपने साईं बाबा के बारे में बहुत कुछ पढ़ा है और इससे आपको अपने गुरु को समझने में बड़ी मदद मिली है। मैंने भी कहीं पढ़ा है कि जीसस को भी कभी-कभी गुस्सा आता था। मैंने पढ़ा है कि साईं बाबा को भी गुस्सा आता था?

नितिन जीः सही है

सवालःफिर भगवान परशुराम भी थे जो हर समय क्रोधित रहते थे?

नितिन जीः  हां  

सवालःबहुत सारे लोग हैं जो आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ थे, लेकिन गुस्सा भी करते थे तो क्या इससे उनका महत्व कम हो जाता है?

नितिन जीः  नहीं,मुझे लगता है कि वे अंदर से बेहद शांत थे। मुझे लगता है कि वे क्रोध के बहाने कुछ व्यक्त करना चाहते थे। उनका क्रोध वास्तव में वैसा नहीं था, जैसा कि मेरा। मुझे नहीं लगता कि वे महान लोग वास्तव में क्रोधित होते थे। यहां तक कि गुरुजी भी किसी बात पर गुस्सा करते थे तो मुझे लगता है कि इसके पीछे गुरूजी और उनकी महानता का कुछ और ही उद्देश्य होता था, जबकि मेरा गुस्सा स्वार्थप्रेरित होता है। 

सवालःअच्छा।

 

भले ही गुरुदेव के शुरुआती सालों में क्रोध का भाव उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा था, लेकिन उनमें अहंकार नहीं था। क्रोध पर क़ाबू पाना उनके कई मिशनों में से एक था। उन्होंने अपने इस लक्ष्य को कैसे हासिल किया? यह बिल्कुल अनोखी बात है।

माताजी बता रही हैं कि गुरुदेव ने अपने क्रोध पर क़ाबू पाने के लिए क्या किया। हालांकि यह उपाय सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन गुरुदेव के संदर्भ में इसने निश्चित तौर पर काम किया!

 

माताजीःयदि किसी ने उनसे झगड़ा कर लिया, तो भी वह कुछ नहीं बोलते थे।उन्होंने अपने गुस्से पर लगाम लगाने की कोशिश की, अपने गुस्से को कम करने की कोशिश की... कभी-कभी बिना कारण के किसी को भी अपशब्द बोल देते थे ... सचमुच ख़राब शब्द बोल देते थे ... और फिर वे लोग उनसे लड़ने के लिए चले आते थे। इस पर गुरुजी हंसने लगते। कैसे कम करें अपना गुस्सा...कोई झगड़ा हो जाए या कोई आपसे झगड़ा कर ले तो  बस अपने गुस्से को क़ाबू में रखें, अपने दिमाग़ को शांत रखें-उन्होंने यही सब किया। ज़्यादातर यह उपाय वह ऑफ़िस में आज़माते थे। 

 

दूसरों के अपशब्दों का अपने आप पर असर न होने देने के कारण उन्हें अपने क्रोध पर क़ाबू पाने में मदद मिली। उनके पास एक सरल लेकिन घातक रहस्य था। यदि आप सिक्के के एक पहलू को पलटते हैं,  तो दूसरा भी बदल जाएगा। उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि यदि मुझे दुखों पर विजय पाना है तो मुझे पहले सुखों पर जीत पानी होगी। यह आसानी से स्वीकार करने योग्य अवधारणा नहीं है लेकिन मैंने इस पर काम किया और परिणाम भी मिले। शास्त्र की भाषा में आप इसे द्वैत पर विजय पाना कह सकते हैं।

मैं गुरुदेव की भूमिका का एक दिलचस्प उदाहरण साझा करना चाहता हूं। इस घटना का मैं गवाह था। बिल्लू नाम का एक नौजवान शराब के नशे में चलते हुए खंडसा फार्म में आ गया। बिल्लू को नशे में देखकर गुरुदेव ने आपा खो दिया और उसे जमकर डांट लगाई...अपने जीवन में पहली बार वह इतना गुस्सा हुए होंगे और मैंने भी उन्हें इतना नाराज़ पहले कभी नहीं देखा था! हे भगवान, क्या वह इस कदर  चिल्ला भी सकते थे?!

चीख़-चिल्लाहट के बाद बिल्लू खेत से चला गया और मैं स्तब्ध रह गया। गुरुदेव मुड़े, मुझे देखकर मुस्कुराए और बोले,  "बरख़ुरदार,  कैसी लगी हमारी एक्टिंग?"

यह सुनकर मुझे थोड़ी राहत मिली। मैं तो बहुत डर गया था, लेकिन उनसे कैसे कह सकता था ?

आइए, गुस्से की दुनिया से बाहर निकलकर अब हंसी-मज़ाक के मैदान में चलते हैं। 

गुरुदेव का हास्यबोध उनके डीएनए का हिस्सा था।

गिरि जी को सुनिए।

 

गिरि जीः वह हमेशा हंसना पसंद करते थे।वह कभी किसी को रोते हुए नहीं देखना चाहते थे। जो कोई भी उनके पास रोता हुआ आता था, वह उसे हंसते हुए ही लौटाते थे। वे हमेशा हंसते और ख़ुश रहते थे। ऐसा उन्होंनेअपनी भावनाओं पर नियंत्रण करके किया।वह हमेशा वर्तमान में ही रहे। शायद आध्यात्मिक रूप से वह सब कुछ जानते थे।

सवालःलेकिन एक आदमी जो सबसे इतना प्यार करता था, उसके लिए यह कहना क्या विरोधाभास नहीं है कि वह सभी लोगों से समान रूप से प्यार करता था, इसलिए अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखता था?

गिरि जीःवह सबसे प्रेम करते थे। वह जानवरों, पक्षियों,खेतों औरपेड़-पौधों से भी प्यार करते थे।वह तो पौधों के साथ भी बातचीत कर सकते थे।

 

सब कुछ जाननातकनीकी रूप से तीसरी आंख के खुलने और अतीतवर्तमान और भविष्य में देखने की क्षमता को बताता है। इसका मतलब यह भी है कि हर उस नकारात्मक घटना के बारे में सजग रहना जो स्वयं, अपने परिवारशिष्यों और किसी भी व्यक्ति के साथ हुई या हो सकती है।

मुझे एहसास हुआ कि यह किसी व्यक्ति पर कितना बड़ा मनोवैज्ञानिक बोझ हो सकता है। जिन लोगों के साथ उनका संवाद-संपर्क हो, उनके बारे में सबकुछ जानकर भी साफ़-साफ़ चेतावनी न दे पाने की मजबूरी। इसके लिए तो  सुपरमैन की तरह आत्म-नियंत्रण की आवश्यकता थी!

गुरुदेव बहुत दूर चल रही बातचीत को सुन सकते थे और लोगों के मन में चल रहे विचारों को जान सकते थे। उन्होंने अपनी इस काबिलियत को भरसक छुपाने की कोशिश की, लेकिन सच्चाई अक्सर सामने आ ही जाती थी। कभी-कभी वह कुछ रहस्य खोल भी देते थे। फिर भी, वह दोहरा जीवन जी रहे थे क्योंकि सबकुछ जानकर भी आम लोगों की तरह अज्ञानी बने रहने का दिखावा करते थे। 

कभी-कभी, अगर उन्हें मालूम हो जाए कि उनके किसी एक भी भक्त को पूरा भोजन नहीं मिला है, तो वह रात का खाना छोड़ देते थे। इस बात का ज्ञान भी उनके लिए किसी बोझ से कम तो नहीं था। 

कभी-कभीवह लोगों की नियति को बदलने की भी कोशिश करते थे, लेकिन कुछ लोग उनके द्वारा दिए गए संकेतों को समझ नहीं पाते थे। यह जानना संभव नहीं था कि वह क्या जानते हैं, और इसलिए उनका देखने का नज़रिया भी अलग था। 

गुरुदेव ने एक बार मुझे स्कूटर से दिल्ली जाने से रोकने की कोशिश की। मुझे नहीं पता था कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह जानते थे कि मेरे साथ दुर्घटना होने वाली है।

ऐसा ही कुछ स्थान में रहने वाले एक युवा मरीज़ वीरू के साथ भी हुआ। यह जानते हुए कि क्या होने वाला है, गुरुदेव ने बिट्टू जी को अपने स्कूटर पर उसके पीछे भेज दिया। आगे रास्ते में क्या होने वाला है, यह बताए बिना। आगे,  बिट्टू जी ने देखा कि वीरू की कार की बुरी तरह से टक्कर हो गई थी और उसमें सवार सभी लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे। बिट्टू जी ने उनका इलाज करवाया और बाद में उन्हें स्थान लेकर आए।

हालांकि, सब कुछ जान लेने का एक फ़ायदा भी था। गुरुदेव अपने प्रत्येक भक्त और शिष्य के भूत, वर्तमान और भविष्य को देख सकते थे और इससे उन्हें उन लोगों की पहचान करने में मदद मिलीजिनकी नियति में प्रगति लिखी थी। साथ ही इन लोगों की जीवन-यात्रा में आने वाली कठिनाइयों और कष्टों को भी जानने में मदद मिली।

उनकी जागरूकता ने उन्हें एक आदर्श गुरु बना दिया।

इससे उन्हें अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाने में भी मदद मिली। 

क्या होने वाला है - इस बात के ज्ञान और उसकी स्वीकृति ने उन्हें भावनाशून्य कर दिया था,  लेकिन इससे उनकी भूमिका समाप्त नहीं हुई थी। 

वह हमारी भावनाओं को क्षमा करने के लिए तैयार थे क्योंकि वह जानते थे कि समय के साथ वह हमारे नज़रिये को बदलने और हमारे गुणों को सुधारने में मदद करेंगे। वह जानते थे कि उन्हें अपनी कमज़ोरियों को दूर करने के लिए कितनी कठिन कोशिश करनी पड़ी थी और इसलिए वह हमारे साथ व्यवहार करने में बहुत धीरज रखते थे। चूंकि उनकी कमज़ोरियां मुख्य रूप से इस जन्म के कारण थीं। उन्होंने पिछले जन्मों में अपनी इन सभी कमज़ोरियों पर कई बार जीत हासिल कर ली थी इसलिए इस जन्म में उन कमज़ोरियों को दूर करने में कम मेहनत करनी पड़ी थी। वह इस बात को अच्छी तरह जानते थे, इसीलिए हम लोगों की भावनात्मक कमज़ोरियों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करते थे।

वह अहंकार को माफ़ नहीं करते थे। क्योंकि उन्हें मालूम था कि अहंकार, अभिमान और ‘'मैं, मेरा और हमारा' के नज़रिये ने पहले भी सेवा,भक्ति,ज्ञान के रास्ते में रुकावट खड़ी की है। इससे आध्यात्मिक दौड़ कठिन हुई है। 

वह बहुत विनम्र थे। उन्होंनेविनम्रता की वक़ालत कीऔर सिखाया कि नतीजा पाने के लिए बहुत धीरज रखना पड़ता है।

40 वर्षों की यात्रा में मैंने अनुमान लगाया कि जो शिष्य विनम्र थेवे वरिष्ठ,अधिक अनुभवी, अधिक प्रभावशाली और अधिक जानकार लोगों के मुक़ाबले काफी आगे निकल गए। सिर्फ अपनी विनम्रता के कारण। विनम्रता ने आत्म-स्वीकृति और आत्म-मूल्य को बढ़ाया। इसने हमारे भीतर यह भाव जगाया कि हम सब एक हैं और हमें बाहरी भौतिक चमक-दमक से दूर करके अपने अंतस के प्रति जागरूक बनाया।  

आइए जानें कि पूर्व जज वीरेंद्र जी का उस शख्स के बारे में क्या कहना है जो उनके आइकॉन थे।

 

वीरेंद्र जीःउनमें बड़ा आत्मसंयम था। मैंने उनके भीतर कभी वासना नहीं देखी। कभी भी नहीं। यह उनकी व्यक्तित्व की ख़ासियत थी। किस तरह के लोग उनसे मिलने आ रहे हैं, इससे उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। मिलने आने वाला पुरुष है या स्त्री, उन पर असर नहीं होता था। आप बच्चे हैं, जवान हैं या बूढ़े-उनके लिए बच्चे ही थे। वह सभी को बेटा कहते थे। मैंने उन्हें स्त्रियों से नज़रें मिलाकर बात करते हुए कभी नहीं देखा। वह स्त्रियों से नीचे देखकर बात करते थे। जब वे बाहर निकल जाती थीं तो उनसे संबंधित संदेश किसी और को दे देते थे। 

गुरुजी में मैंने उच्चतम स्तर का आत्म-संयम देखा है। उन्हें कोई लालच नहीं था। वह धन, स्त्री या प्रशंसा किसी के प्रति भी आकर्षित नहीं होते थे। उन्हें कुछ भी नहीं लुभाता था। 

 

एक सवाल हममें से सभी लोगों के लिए आम है कि जब विपरीत लिंग के साथ व्यवहार करने की बात आती है तो नकारात्मक विचारों से कैसे निपटा जाए। 

देखिए किस तरह उन्होंने हमें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना सिखाया।

वह चाहते थे कि हम पहले एक स्त्री को एक बूढ़ी औरत या एक बुढ़िया के रूप में देखें,  और बाद में एक बच्ची या गुड़िया के रूप में देखें। यह तकनीक हमारे भीतर पैदा हुई वासनाओं को मात देने में मदद करेगी। बाद में  इसी तरीक़े को अपनाते हुए  मैंने एक व्यक्ति को कंकाल के रूप में देखने की एक वैकल्पिक तकनीक विकसित की। इसने भी उतने ही प्रभावी ढंग से काम किया।

डॉ शंकर नारायण को शुरुआती सालों में एक अजीब अनुभव हुआ। अपना वह अनुभव उन्होंने हम सभी के साथ साझा किया। इससे हमें एक सबक़ मिलता है।

 

सवालःक्या गुरुदेव के बारे में आपका ऐसा कोई अनुभव है जो आप लोगों के साथ साझा करना चाहेंगे? हो सकता है कि उन्होंने आपको कोई अद्भुत या उल्लेखनीय बात दिखाई हो।

डॉ शंकरनारायण जी: एक दिन मैं दफ़्तर के लिए जरा जल्दी निकल रहा था। गुरुजी वास्तव में ध्यान कर रहे थे या सो रहे थे, मुझे नहीं मालूम। फिर मैंने माताजी से पूछा "मुझे क्या करना चाहिए?"उन्होंने कहा, "बेटा,मैं क्या कह सकती हूं?"मैंने उनसे कहा,"क्या मुझे उनके पैर छूकर निकल जाना चाहिए?"उन्होंने कहा ठीक है। मैंने जाकर उनके चरण छुए और वहां से निकल गया। जहां से मैं बस पकड़ने के लिए गुजर रहा था वहां एक बड़ा खाली मैदान था। मैं मैदान के आखरी छोर तक पहुंचा ही था कि मैंने बच्चों की आवाज़ सुनी। वे बच्चे जिनमे बब्बा भी शामिल था मेरी तरफ दौड़ रहे थे। मैंने सुना, "डॉक्टर अंकल, गुरुजी आपको बुला रहे हैं।" फिर मैंने सोचा पता नहीं क्या हो गया। मैं उनसे मिलने वापस गया। मैं आपको गुरुजी के बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य बताने जा रहा हूं। उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा। फिर उन्होंने मुझे अपने हाथ दिखाए और कहा, "आपको वापस बुलाने का कारण यह है कि मैं वहां एक मीटिंग कर रहा था और बीच में आप आए और आपने मेरे अंगूठे को छुआ। चूंकि आपने मेरे पैर छुए, तो मुझे मीटिंग खत्म करके वापस आना पड़ा। अगर मैंने आपको बुलाया नहीं होता तो आपका एक्सीडेंट हो जाता या रास्ते में ही आपकी मौत हो जाती।क्योंकि उन गणों को आप पर बहुत गुस्सा आया था। इसलिए मुझे आपको वापस बुलाना पड़ा।"

 

डॉ शंकरनारायण ने जो कुछ कहा, मैं उसे ठीक से स्पष्ट करना  चाहता हूं। उन्होंने कहा कि जब वह गुड़गांव के लिए निकले तो गुरुजी पाठ पर थे। इसलिए उन्होंने निकलने से पहले माताजी से इजाज़त मांगी। लेकिन जाने से पहले उन्होंने जाकर गुरुदेव के पैर छुए। उस दौरान,  गुरुदेव गणों के साथ सुक्ष्म मीटिंग कर रहे थे। गुरुदेव के पैर छूने की क्रिया ने उन्हें अपने भौतिक शरीर में वापस आने के लिए मजबूर कर दिया, जिससे गणों के साथ चल रही मीटिंग में बाधा पड़ गई। 

गण वे होते हैं जो शिव, विष्णु, या ऐसी ही शक्तियों के सहायक होते हैं। गणों को गुस्सा आ गया और वे डॉ शंकरनारायण से बदला लेने को उतारू हो गए,लेकिन धन्यवाद कि गुरुदेव ने बीचबचाव किया  और डॉ शंकरनारायण गणों के क्रोध से बच गए।

डॉ शंकरनारायण  द्वारा  साझा  की  गई  कहानी  हमें  यह  समझाती है  कि  मनमुताबिक़  काम  न  हो तो गणों  को  भी  गुस्सा  आ  जाता है। 

कई लोगों की समस्या यह होती है कि वे अपने गुस्से और रिएक्ट करने की आदत पर काबू नहीं रख पाते हैं। यह उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाता है। लेकिन यह घटना प्रदर्शित करती है की हमारी कमज़ोरी तो कतई दूर नहीं होती, लेकिन कोशिश और समय के साथ हम इस समस्या से पूरी तरह से न सही, कुछ हद तक तो निजात पा ही सकते हैं!

हालांकि यह दोहराव होगा लेकिन फिर भी चाहता हूं कि मैंने भावनाओं के बारे गुरुदेव से जो सीखा है, उसमें आप मेरे साथ एक बार फिर शामिल हों। मेरा मानना है कि जब तक हम अपने मनोभावों पर अंकुश नहीं लगाएंगे, हम अपने गुणों को नहीं बदल सकते।  हम जुड़ाव से बच नहीं सकते, हम वैरागी या निरपेक्ष नहीं बन सकते और हम अपनी राजसी प्रवृत्तियों को दबा नहीं सकते। 

अगर हम यह सब नहीं कर सकते हैं, तो पृथ्वी तल  या उससे कुछ ऊंची या कुछ नीची सतह में जाकर फंस जाएंगे। लेकिन हम अपनी चेतना को उस उच्चतम स्तर तक विस्तारित करने में सक्षम नहीं होंगे जो उस स्वर्ग से बहुत आगे है, जिसके बारे में लोग बातें तो करते हैं लेकिन उसे समझते नहीं हैं। मैं उच्च लोकों के बारे में बात कर रहा हूं।

मेरा मानना है कि यदि आप इस जीवनी को सुन रहे हैं, और यदि आप गुरुदेव के भक्त या अनुयायी या शिष्य हैं, और यदि आप एक जीवित सत्ता के रूप में उनके उदाहरण पर चलते हैं, तो आप शायद बहुत ऊंचे लोकों और बहुत ऊंचे स्तरों तक पहुंचने के योग्य हैं। और, मैं इस संदेश के साथ इस पॉडकास्ट को समाप्त करना चाहूंगा -

आए हो निभाने को जब किरदार ज़मीन पर

आए हो निभाने को जब किरदार ज़मीन पर

कुछ ऐसा कर चलो कि ज़माना मिसाल दे

कि ज़माना मिसाल दे।