The Guru of Gurus - Audio Biography

गुरुदेव की ज़िंदगी की कठिनाइयां

October 29, 2021 Gurudev: The Guru of Gurus
The Guru of Gurus - Audio Biography
गुरुदेव की ज़िंदगी की कठिनाइयां
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एक पारिवारिक इंसान,  एक सरकारी कर्मचारी,  एक उपचारक, अध्यात्म का एक जानकार, एक गुरु, एक महागुरु,  इन सभी भूमिकाओं को एक साथ निभाना कोई आसान काम नहीं था। गुरुदेव की मौजूदगी एक क़िस्म की आध्यात्मिक लॉटरी थी,  लेकिन उनके लिए शारीरिक रूप में होना बहुत कष्टप्रद था।

गुरुदेव ऑनलाइन गुरुओं के गुरु - महागुरु की ऑडियो बायोग्राफी प्रस्तुत करता है।

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आप गुरुदेव की जिंदगी और उनकी विचारधारा के बारे में इस वेबसाइट पर भी पढ़ सकते हैं - www.gurudevonline.com 

एक पारिवारिक इंसान,  एक सरकारी कर्मचारी,  एक उपचारक, अध्यात्म का एक जानकार, एक गुरु, एक महागुरु,  इन सभी भूमिकाओं को एक साथ निभाना कोई आसान काम नहीं था। गुरुदेव की मौजूदगी एक क़िस्म की आध्यात्मिक लॉटरी थी,  लेकिन उनके लिए शारीरिक रूप में होना बहुत कष्टप्रद था।

 गुरुदेव की ज़िंदगी की कठिनाइयां 

लोगों के मन में गुरुदेव की एक छवि थी, जो आपसी बातचीत के कारण बनी थी। लोग जब गुरुदेव से मिलने आते, तो बड़ी उम्मीदों के साथ आते थे। स्वाभाविक रूप से ये मदद,  उपचार, हालात सुधारने जैसी आध्यात्मिक अपेक्षाएं थीं। लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए गुरुदेव को आध्यात्मिक शक्ति का इस्तेमाल करने की जरूरत थी। वह शक्ति जिसे अर्जित करने और बनाए रखने की आवश्यकता थी।

शुरुआत में लोगों की बीमारियां और समस्याएं कुछ हद तक उपचार करने वाले व्यक्ति के शरीर और उसकी आभा को प्रभावित करती हैं। गुरुदेव को इससे निपटना था  और नकारात्मकता को आत्मसात भी करना था।

इसके अलावा, उन्हें इस पहेली को भी हल करना था कि सार्वजनिक कार्यक्रमों में केवल कुछ सेकंड के लिए लोगों को देखकर उन सभी को कैसे याद रखा जाए। इनमें से 30 से 40 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिनसे वह व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं मिल पाते थे, क्योंकि वे लोग दुनिया भर के विभिन्न शहरों में उनके द्वारा स्थापित किए गए स्थानों में दर्शन के लिए जाते थे। इन लोगों को उन्हें या तो अपने शिष्यों की नज़रों से देखना पड़ता था या उनकी प्रार्थनाओं के ज़रिये उनसे परिचित होकर उनकी समस्याओं को हल करने के लिए सूक्ष्म यात्रा करनी पड़ती थी। उनके लिए यह सूक्ष्म यात्रा किसी व्यावसायिक यात्रा के समान थी। वास्तव में,  यदि आप चाहें तो हम इसके लिए एक नया शब्द गढ़ सकते हैं - आध्यात्मिक पर्यटन (स्प्रिचुअल टूरिज़्म)!

जब गुरुदेव अपने आध्यात्मिक जीवन के चरम पर थे, उस समय वह हर महीने लाखों लोगों से मिलते और उनकी समस्याओं का समाधान करते थे। होटल,  अस्पताल और संस्थान अपने यहां आने वाले लोगों की गिनती प्रति वर्ग फुट की संख्या से करते हैं। गुरुदेव को 600 वर्गफुट की जगह में करीब 50000 लोगों से मिलना पड़ता था। यानी लगभग 80 से 90 लोग प्रति वर्ग फुट प्रति दिन। और अगर हमारे व्यवस्थापन कौशल की कमी रह जाती तो उससे मुश्किल और भी बढ़ जाती थी!

साथ ही, जिन ताक़तों से गुरुदेव को निपटना पड़ता था, उनकी पहले से जानकारी नहीं होती थी। ऐसी कई नकारात्मक शक्तियां थीं जो बाधाएं खड़ी करती थीं और गुरुदेव को उन्हें पार करना पड़ता था। ये नकारात्मक ऊर्जाएं आत्माएं,  काला जादू,  नाराज़ गुरु, आदि के रूप में हो सकती थीं। 

उन्होंने ऐसे मामलों में दुखी व्यक्ति की आत्मा और उसके ग्रह-नक्षत्रों की रक्षा में बचाव पक्ष के वकील की भूमिका निभाई। उन्होंने अक्सर बार-बार स्थान में आने वाले लोगों का इलाज लाइन में इंतज़ार करवाकर किया। इस इंतज़ार को वह तपस्या या ऊर्जा का हस्तांतरण कहते थे। इसी तरह से उन्होंने लोगों की नियति को संतुलित किया। क्या आप इस पर विश्वास कर सकते हैं?

लाखों लोग गुरुदेव की तस्वीर के सामने प्रार्थना करते थे और उन्हें उनकी प्रार्थनाओं का जवाब देना होता था, अक्सर तुरंत और कभी-कभी कुछ समय बीतने के बाद। यह बात लिखने में जितनी आसान लगती है, वास्तव में काम करना उतना ही कठिन था ! इसके साथ-साथ उन्हें आर्थिक रूप से एक बहुत ही मध्यम वर्गीय जीवन जीना था,  नौकरी करने के लिए रोज़ ऑफ़िस जाना, आधा साल कैंप में बिताना और अपने परिवार को समय देते हुए एक सामान्य जीवन भी जीना था। 

जिन्होंने गुरुदेव को माना-स्वीकार किया,  उन्होंने उन्हें अपना लिया। लेकिन क्या गुरुदेव बनना इतना आसान था? सच कहूं तो वह भाग्यशाली थे कि वह गुरुदेव बनकर जीए, और मैं अपने आपको भाग्यशाली मानता हूं कि मैं उनके जैसा नहीं बना, मैं तो जीवित ही नहीं रह पाता।

नितिन गाडेकर अपनी बात कह रहे हैं।

 

 

 

सवालःक्या आपको लगता है कि गुरुदेव का जीवन जीना आसान था?

नितिन जीःनहीं, कतई नहीं। इतने सारे लोग,इतनी सारी मांगें, फ़ोन करना, उन्हें हर समय परेशान करना। इतने सारे लोगों को संभालना, उनका नेतृत्व करना आसान काम नहीं था। मेरा मतलब है कि आपको वास्तव में ऊंचे दर्जे का गुरु होना चाहिए,जो सैकड़ों लोगों के इशारों और उनकी पुकार को समझ सके।इनमें से कुछ लोग तो कभी-कभी पूछते हैं कि उनका टेलीविजन काम नहीं कर रहा है, क्या करें। यानी आप तो जानते ही हैं कैसे-कैसे लोग थे, जो हास्यास्पद और बेतुके सवाल भी किया करते थे। तो, इस स्थिति में आप होते तो क्या करते ?फिर भी गुरुजी शान्त रहकर सारी दुनिया की बातें सुन लेते थे। मुझे नहीं लगता कि यह आसान काम था। इस बारे में मैं जब सोचता हूं तो मुझे लगता है कि जब ऑफ़िस में होते थे तो ये सब बातें भूल जाया करते होंगे। 

 

गुरुदेव की गुल्लक में कई छेद थे। ऑफ़िस के मातहत लोग वेतन वाले दिन इसमें से कुछ हिस्सा ले जाते थे। शुरुआती सालों में उनके रूममेट्स द्वारकानाथ जी और नागपाल जी को उनकी दरियादिली का खामियाज़ा भुगतना पड़ा। और अजीब बात यह थी कि हर मांग जायज़ नहीं होती थी, और वह इस बात को जानते भी थे लेकिन फिर भी हर महीने अपने वेतन का हिस्सा बांट देते थे।

आगे चलकर सेवा और अपने नए शिष्यों की देखभाल में उनकी कुछ पूंजी खर्च हो जाती थी। परिवार वालों को अपने ख़र्चों का ध्यान रखना पड़ता था क्योंकि गुरुदेव अपने व्यक्तिगत ख़र्चों को अपने शिष्यों के योगदान से वहन करने की इजाज़त नहीं देते थे।

उनकी आमदनी सीमित थी, लेकिन वह दिल खोलकर ख़र्च करते थे! 

आमतौर परइसे लापरवाही कहा जाएगा। जैसे "आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैय्या"। लेकिन फिर भी उनका गुज़ारा हो जाता था। भगवान ही जानता है कि कैसे। लेकिन हो ज़रूर जाता था।

धन के प्रति उनका नज़रिया निष्पक्ष था। उनका धन से मोह नहीं था। उनको धन की कमी ज़रूर महसूस होती थी, लेकिन उनका हाथ कभी ख़ाली रहा हो, ऐसा नहीं हुआ। धन की देवी लक्ष्मी ने नेक काम में उनका हमेशा साथ दिया। 

माताजी को पैसे को किफ़ायत और ध्यान से खर्च करना आता था। उन्होंने कभी भी पैसों की कमी महसूस नहीं की। हालांकि गुरुजी अपने वेतन से पैसा बांटते थे, लेकिन कुछ हिस्सा घर भी लेकर आते थे। बाद में उनके शिष्यों ने ये सुनिश्चित किया कि वेतन सीधे माताजी के हाथों में आए। और फिर गुरूजी माताजी के खज़ाने से पैसा लेकर ख़र्च करने लगे।

आइए सुनें माताजी का क्या कहना है।

 

सवालःमैंने उनके वेतन और उनके ख़र्च और जीवन शैली के बारे में सुना है। वह लोगों को उपहार में बहुत सी चीजें दे दिया करते थे। तब तो आपको हमेशा पैसों की तंगी बनी रहती होगी??

माताजी: मुझे ऐसा कभी नहीं लगा। मुझे वह जो भी तनख़्वाह देते थे, मैंने उसी दायरे में रहने की कोशिश की। कभी कोई कमी रह भी गई तो उन्होंने मुझे कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया। उन्होंने मेरे हाथ में हमेशा पैसे रखे। मुझे नहीं पता कि वह कैसे और कहां से करते थे, लेकिन मुझे हमेशा पैसा मिलता रहा।

 

सवालःआप भी नौकरी करती थीं?

माताजी: हां,मैं भी काम करती थी। लेकिन मैंने कभी अपने वेतन को अलग रखने के बारे में नहीं सोचा। मेरे और उनके पैसे एकसाथ ही रहते थे।

 

सवालःलोग ऐसा क्यों कहते हैं कि उन्होंने ऑफ़िस में यह निर्देश दे रखा था कि उनका वेतन आपको दिया जाए?

माताजी: ऐसा इसलिए था क्योंकि जब भी उन्हें वेतन मिलता था,लोग उनके पास आकर रोना रोने लगते थे और वह उन्हें पैसे दे देते थे। उन्होंने कभी किसी को किसी चीज़ के लिए मना नहीं किया - अगर कोई 100-200रुपये मांगता, तो भी वह उन्हें दे देते थे। उन्होंने अपना पूरा वेतन घर ले जाने के बारे में कभी नहीं सोचा। जो मांगे, उसे बांट देते। फिर लोग कहने लगे कि मैं उनका सारा पैसा ख़र्च कर देती हूं इसलिए उन्होंने उनका वेतन मुझे दिलवाना शुरू किया, वरना पूरा वेतन बाहर ही ख़र्च हो जाता। 

 

 

सवालःयह व्यवस्था उनके शिष्यों ने की थी?

माताजी:  जी हां।

 

नौबत राम जी जब गुड़गांव आए, तो वह गुरुदेव के पड़ोसी थे। वह बताते हैं...

 

सवालःजब गुरुदेव शिवपुरी में रहते थे, तो क्या उनके घर में बड़ी परेशानियां थीं?

नौबतराम जीःवह वहां किराए के मकान में रहते थे जिसमें दो कमरे थे।

 

सवालःअच्छा, तो क्या वहां बहुत सारे लोग उनसे मिलने आते थे?

नौबतराम जीःहां, उस वक्त वहां उनसे मिलने काफ़ी लोग आते थे।

 

सवालःतो, क्या उन्हें वहां रहने में कोई समस्या होती थी?

नौबतराम जीःउन्हें परेशानी तो होती थी, लेकिन भगवान की कृपा से उन्होंने इसे कभी महसूस नहीं किया और न ही कभी लोगों को महसूस होने दिया।

 

सवालःउसने परेशानी को कभी महसूस नहीं किया, तो क्या वह हमेशा मुस्कुराते और हंसते रहते थे? 

नौबतराम जीःजी हां।

 

शिवपुरी से दिल्ली का सफ़र क्या इतना आसान था?  नहीं, कतई नहीं।

 

पारिवारिक जीवन के साथ आध्यात्मिक जीवन बिताना - क्या इतना आसान था?  बिल्कुल नहीं।

 

दोहरी जीवन शैली का ख़र्चा उठाना भी आसान नहीं था।

 

फिर भी वो हमेशा मस्कुराते रहते थे और अपने सेंस ऑफ ह्यूमर को हमेशा ज़िंदा रखायह सीखने वाली बात है। मुझे लगता है कि हंसी-मज़ाक, उदासी और बेचारगी को आपसे दूर रखता है। मैं इस पॉडकास्ट के सभी श्रोताओं को उनके उदाहरण और अपने अनुभव से सीखने की सिफ़ारिश करता हूं।

 

मुझे पक्का भरोसा है कि जो हमेशा मुस्कुराता और हंसता रहता है, उसमें खूब आत्मविश्वास होता है और वह खुश मिज़ाजहोता है। इसे जरूर आज़माएं!

 

गुरुदेव के महागुरु बनने से पहले,  उन्हें इस राह में आने वाली कई बाधाओं को पार करना पड़ा और कई परीक्षाएं देनी पड़ीं। पहलवान जी ने गुरुदेव से हुई बातचीत के अंश हमारे साथ साझा किए।

 

पहलवान जी:  उन्होंने कहा, "बेटा,मेरे जीवन में कई बार ऐसा हुआ है कि मुझे फटे हुए कपड़ों को सिलकर पहनना पड़ा है।" क्या आप पैबंद समझते हैं?वह कपड़ों में पैबंद लगाकर पहनते थे। कभी-कभी कपड़े में बीस टांके भी लगे हुए रहते थे। उन्होंने एक बार बताया कि वह बच्चों और माताजी को बाज़ार ले गये। छोटी बच्ची गोद में थी। रेणु सबसे बड़ी थी इसलिए वह उनकी उंगली पकड़कर चल रही थी। उसने एक मिठाई की दुकान की ओर इशारा किया क्योंकि वह दूध पीना चाहती थी। उसने दो गिलास दूध पिया। घर लौटकर उन्होंने माताजी से पूछा, "मास्टर,क्या तुम उसे दूध नहीं देती?" वह माताजी को 'मास्टर' कहकर बुलाते थे। माताजी ने उत्तर दिया,"मैं उन्हें दूध कैसे दूंगी। मेरे पास इतने पैसे बचते ही कहां हैं?"माताजी ने गुरुदेव को संक्षेप में बता दिया कि वह किन परेशानियों से गुज़र रही हैं।

 

गुरुदेव ने आगे बताया कि इस बात से वह बहुत चिंतित थे और पूरी रात सो नहीं सके। उन्होंने कहा कि उन्हें फैसला लेना था कि सेवा जारी रखी जाए या बंद कर दी जाए। वह पूरी रात यही सोचते रहे। अगली सुबह उन्होंने कहा कि “में इस मार्ग पर चलता रहूंगा चाहे जो भी परेशानी हो।“

 

पैसा एक ऐसा पहलू है जहां अधिकांश अध्यात्मवादियों की गहन परीक्षा होती है। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो इसकी ओर झुक जाते हैं और भोग-विलास में लिप्त हो जाते हैं, और कुछ ऐसे होते हैं जो संयम बरतते हैं, मितव्ययी होते हैं।

 

बहुत क्षमतावान व्यक्ति को भी धन और धैर्य की परीक्षा से गुज़रना पड़ता है। उनका त्याग यह बताता है कि आखिर वह भी तो हमारी ही तरह इंसान थे और इस तरह की परीक्षाओं को पास करने के लिए उन्हें मज़बूत संकल्प की जरूरत थी, जैसी कि हमें पड़ती है। उनकी कहानी हमें इंसानी क्षमता के बारे में बताती है कि रास्ते में आने वाले प्रलोभनों से संतुलन साधकर किस तरह दूर रहना चाहिए। 

 

गुरुदेव अपने आकाशीय प्रशिक्षकों, अन्य सहयोगियों,  देवताओं और सामान्य लोगों की भी निरंतर निगरानी में थे। उन्होंने दान और उपहारों को स्वीकार न करने का जो उदाहरण पेश किया उस पर विश्वास करना कठिन था, लेकिन सम्मान करना आसान। 

 

परिस्थितियों से बीच से गुजरते हुए अपने लक्ष्य को पाना आसान नहीं था। कई तरह की कठिनाइयां थीं। उन्होंने सेवा की शुरुआत दूसरे लोगों के घरों से और अपने ऑफ़िस के नीचे स्थित चाय की दुकान के बाहर से की। वह सचमुच एक ऐसे संत थे जिन्हें कोई नहीं जानता था। लेकिन बाद में उन्होंने अपने कार्यस्थल का लाभ उठाया। जहां कहीं भी वह काम के सिलसिले में गए, वहीं सेवा की।

 

एक बहुत अच्छे इंसान और महागुरू की मंडली का हिस्सा, यानी गग्गू जी, संक्षेप में बता रहे हैं।

 

गग्गू जीःजो लोग उनसे मिलने आते थे, उनकी कुछ ज़िम्मेदारी गुरुदेव पर थी।

 

अन्य लोगों के विचारों को पढ़ पाने की काबिलियत होना रोमांचक लगता है, लेकिन सबकुछ जानते हुए भी न जानने का नाटक करना बहुत मुश्किल होता है। ज़ाहिर है, विश्वास कोई दवाई की दुकान में मिलने वाली कैप्सूल तो नहीं है, जिसे आप ख़रीद कर खा लें। वह जिस तरह से सामान्य लोगों की तरह कपड़े पहनते थे, और जिस तरह से बातचीत करते थे, उससे विश्वास का संकट और गंभीर था। क्या किसी ऐसे व्यक्ति पर विश्वास करना आसान हो सकता है जो सामान्य लोगों की तरह लगता हो?

और फिर जल्दी हीअधिकतर लोगों का उन पर विश्वास जम जाता था और वे लोग उनके प्रशंसक बन जाते थे। उनके जीने का तरीक़ा और उनके आभामंडल ने लोगों को प्रभावित किया।

माताजी के भतीजे निक्कू, चार मसखरों में से एक थे। उन्होंने जो गहरा अवलोकन कियावह कुछ इस प्रकार है।

सवालःआप उनके साथ उनके घर में कई दिनों तक रहे। हमें बताइए कि उनकी दिनचर्या कैसी थी। वह अपना दिन कैसे बिताते थे ?

निक्कू जीःभले ही वह रात को 2 बजे या3.00 बजे सोएं, लेकिन सुबह 5.30 बजे या 6 बजे हर हाल में उठ जाते। मैंने उन्हें अपने पूरे जीवन में कभी भी सुबह 9 या10 बजे तक सोते हुए नहीं देखा। बहुत हुआ तो सुबह 6 बजे तक सोते थे। सुबह 7.30- 8 बजे तक वह ऑफ़िस के लिए निकल जाते थे।

कभी-कभी वह घर के मुख्य द्वार से ऑफ़िस के लिए नहीं निकल पाते थे क्योंकि सुबह 8बजे से ही लोग घर के बाहर उनका इंतज़ार करने लगते थे। इसलिए वह घर के पीछे से ऑफ़िस के लिए निकलते थे। 

सवालःघर के पीछे से का क्या मतलब?

निक्कू जीः पीछे से मतलब घर के पीछे की दीवार फांदकर जाते थे।बाद में वहां एक स्लाइडिंग दरवाज़ा बनाया गया और वह वहां से जाने लगे। वह किसी को घर के पीछे स्कूटर लाने के लिए कहते और चुपचाप निकल जाते। क्योंकि ऑफ़िस वह समय पर पहुंचना चाहते थे। अगर कम लोग रहते थे तो वह उन्हें आशीर्वाद देते और फिर ऑफ़िस निकलते थे। ऑफ़िस में वह अपना काम पूरा करते थे। ऑफ़िस में भी वह कम ही लोगों से मिलते-जुलते थे। लगभग 2,3 या शाम 4 बजे तक घर वापस आ जाते थे। कभी-कभी खेत में जाकर गायों की सेवा भी करते थे। यह सब उन्हें अच्छा लगता था।

सवालःआखिर उनका दिन कब खत्म होता था और कितने बजे रात को सोते थे ?

निक्कू जीः आम तौर पर वह रात को 2.30 या 3 बजे सोते थे। मैंने उन्हें अपने जीवन में कभी भी रात को 11 -11.30 बजे सोते नहीं देखा। कभी नहीं। 2 बजे से पहले तो कभी सोते ही नहीं थे। 

सवालःवह रात 2.30 बजे तक क्या करते थे?

निक्कू जीः रात के 12-1बजे तक लोग उनसे मिलने के लिए इंतज़ार करते थे। उसके बाद कोई शिष्य प्रतीक्षा कर रहा होता था। आप मुझसे यह सब क्यों पूछ रहे हैं?आप भी तो ऐसा ही करते थे। वह आपसे भी कुछ चर्चा करते थे। रात के 2 बजे तक उनके सभी शिष्य उनके साथ बैठे होते थे और उसके बाद वह भोजन करते थे। हम सब उनके साथ भोजन करते थे। तो,आप बेहतर जानते होंगे कि वह 2 बजे तक क्या करते थे?

सवालःहां,मुझे पता है। (हंसते हैं)

निक्कू जीःतो आप ही बताएं कि वो 2 बजे रात तक क्या करते थे?

सवालःवह अध्यात्म की बात करते थे। तो,  वह आदमी सुबह 5.30 बजे से रात 2.30 बजे तक काम ही करता रहता था। बस पाठ के लिए एक ब्रेक लेते थे। 

निक्कू जीः हां। पर ऐसा हमेशा नहीं होता है। अगर पाठ करना हो तो ही ब्रेक लेते थे नहीं तो आप कह सकते हैं वह 20 घंटे व्यस्त रहते थे।

सवालःवाह। मैं तो ऐसा जीवन नहीं जी पाऊंगा? क्या आप?

निक्कू जीःनहीं हम ऐसा नहीं कर सकते।

 

उपचार और मदद करने के अलावागुरुदेव उनके पास आने वाले हरेक को यह महसूस कराते थे कि उनका उस पर ध्यान है। प्रत्येक आगंतुक को महत्वपूर्ण महसूस कराना कोई आसान काम नहीं था, जैसा कि निक्कू जी बताते हैं।

 

सवालःक्या वह बहुत मज़ाकिया इंसान थे?आप कई सालों तक उस घर में रहे, तो आपको बेहतर मालूम होगा कि उनका स्वभाव कैसा था, क्या वह हंसमुख थे, मज़ाकिया थे, या गंभीर किस्म के थे?

निक्कू जीःजब वह सेवा के मूड में होते थे तो बहुत गंभीर हो जाते थे। वह लोगों से प्यार और परवाह से मिलते थे। गुरुजी की सबसे अच्छी बात यह थी कि क़रीब एक लाख लोग उनसे मिले होंगे और चले गए होंगे।  वे सभी एक लाख लोग सोचते थे कि गुरुजी वहां उनके लिए ही बैठे हैं। वह लोगों को ऐसा ही महसूस कराते थे। जबकि यह अहसास हम अपने दो बच्चों को नहीं दे पाते। जैसा कि मैंने देखा और शायद आपने भी देखा होगा कि यदि कोई ज़िद्दी इंसान गुरुदेव से मिलने आता तो उसकी मनोदशा नकारात्मक होती थी। वह मेरे, आपके सभी के बारे में नकारात्मक ही सोचता था। लेकिन जब वह अंदर आता और गुरुजी के पैर छूने के लिए झुकता है तो गुरुजी ऐसा कभी नहीं सोचते थे कि यह व्यक्ति नकारात्मक मनोदशा के साथ आया है इसलिए वह उसकी समस्याओं का समाधान नहीं करेंगे।

 

निक्कू जी नहीं जानते थे कि गुरुदेव बुड्ढे बाबा के निर्देशों का पालन कर रहे थे। उन्हें सख्ती से कहा गया था कि उन्हें बिना किसी पक्षपात के या किसी के प्रति कोई धारणा बनाए बिना सेवा करनी है।

बिट्टू ने, जो उस समय नौजवान थे, महागुरु को नई दृष्टि से देखा। उनकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि नहीं थी,  चूंकि गुरुदेव ने उन्हें ठीक किया था इसलिए उनके प्रति कृतज्ञ थे।

 

बिट्टू जीःहम अपने निजी जीवन के हर एक पल को गुरुजी के साथ साझा करते थे। हमारे सुख, दुख, ग़लतियां और भी बहुत कुछ। कभी-कभी,शारीरिक रूप से आमने-सामने रहकर नहीं, बल्कि स्थान पर खड़े होकर अपनी समस्याओं को साझा करते थे। वह हमारी हर बात सुनते थे, लेकिन किसी और को नहीं बताते थे कि बिट्टू यह कह रहा था, या मेरे पिता वैसा कह रहे थे या बिट्टू ने यह ग़लत किया। वह सब कुछ पचा लेते थे, और वह ऐसा कर सकते थे क्योंकि वह 'नीलकंठ'थे। और इसी लिए वह गुरु और भगवान हैं। वह किसी भी तरह का ज़हर पी सकते थे। इतना सक्षम बनने के लिए आपको बहुत मेहनत और बहुत त्याग करना पड़ता है। एक आदमी से गुरु बनने के लिए उस व्यक्ति को अपने से पहले दूसरों की ज़रूरतों का ध्यान रखना होगा। उसे मानव जाति से प्रेम करना होगा। हम गुरूजी से मिलने क्यों आते थे ?उन पलों को याद करिए जब वहां नहीं होते थे-हम सब उनको लेकर चिंतित हो जाते थे। सब उनके बारे में ही पूछताछ करने लगते थे। उनमें एक तरह का आकर्षण था, जो मुझमें नहीं है।

 

किसी के राज़ को अपने तक रखना एक बहुत बड़ा बोझ होता है। और कल्पना कीजिए कि उन्होंने कितने लोगों के राज अपने पास रखे थे।सचमुच,वह कभी भी अपने बाएं हाथ को यह नहीं जानने देते थे कि दाहिना हाथ क्या कर रहा है। लोग उनके व्यवहार और दृष्टिकोण से उनकी विश्वसनीयता को लगातार परखते रहते थे। शीशे के घर में रहना कभी आसान नहीं होता लेकिन यही उनकी नियति थी।

यदि उनके लिए अपने मिलने वालों से निपटना कठिन था, तो शिष्यों के साथ निपटना कम आसान नहीं था। उन्हें अपने शिष्यों,परिवार, आगंतुकों और सहयोगियों के अलावा अन्य सभी लोगों पर पूरा ध्यान देना था। 

जिस आदमी को इतने लोगों का ध्यान रखना था, वहचैन से कैसे रह सकता था?

मैं इस बात से शर्मिंदा हूं कि मैंने उनके साथ जितनी बार संभव था उतनी बार जोड़-तोड़ की। मुझे इस बात का होश नहीं था कि मैं लापरवाही कर रहा हूं। हम उनके दीवाने हो गये और यह जुनून बन गया। अधिकांश लोग गुरु की सेवा करते हैं लेकिन हमने उन्हें तंग किया।

बिंदु लालवानी मेरी बात से सहमत हैं

 

सवालः"तो, उनके पास किसी भी समय, सबके लिए वक्त होता था..?"

बिंदू जी: "हां बिलकुल! उनके पास सबके लिए समय था और वह बहुत मिलनसार थे।"

 

मुकेरियां, पंजाब के रहने वाले विश्वामित्र जी एक शांत और संकोची व्यक्ति हैं। गुरुदेव के जीवन की कठिनाइयों पर वह अपनी बात बहुत थोड़े में लेकिन शानदार ढंग से कह रहे हैं।

 

सवालःआपके अनुसार गुरुदेव का जीवन चुनौतियों से भरा था या आसान? आपने उनके जीवन में किस तरह की चुनौतियां देखीं?

विश्वामित्र जी: गुरुदेव का जीवन कठिनाइयों भरा था।

सवालःहां, मैं आपकी बात से सहमत हूं, बताएं किस तरह?

विश्वामित्र जी:  गुरुदेव अनगिनत लोगों की परवाह करते थे।कई तरह की समस्याएं उनके सामने आती थीं, वह उनको हल करने में मदद करते थे। वह हर एक व्यक्ति को याद करते थे,भले ही वह उससे सिर्फ एक बार ही मिले हों। उन्हें सब याद रहता था। यह बहुत बड़ी बात है। हम जैसे लोग एक बार मिलने के बाद भूल जाते हैं।

सवालःआपने गुरुदेव को और किन चुनौतियों का सामना करते हुए देखा?

विश्वामित्र जी: गुरुदेव ने शायद ही कभी दिन में आराम किया हो। वह रात को ही सोते थे। उन्होंने दूसरों की भलाई के लिए बहुत मेहनत की।

 

श्री दास बता रहे हैं कि कैसे गुरुदेव हर आने वाले के विचारों, भावनाओं और दृष्टिकोणों को जानते थे। इसके कारण उन्हें उन लोगों का मूल्यांकन करने में आसानी होती थी। 

 

सवालःमैं चंडीगढ़ के दास साब से बात कर रहा हूं जो गुरुदेव को शुरुआत से जानते रहे हैं और उनके साथ कुछ समय भी बिताया है। दास साब, मेरा एक सवाल है कि गुरुदेव ने उनसे मिलने आने वाले इतने लोगों और उनके चेहरों को कैसे याद रखा? बड़ा गुरुवार को तो 40-50 हजार की संख्या में भी लोग आते थे?

दास साहबः मैंने गुरुजी से पूछा था कि आप यह कैसे करते हैं।  तो गुरुजी ने मुझसे कहा कि मेरे सामने एक स्क्रीन है जो सिर्फ मुझे ही दिखाई देती है। और क़तार में जितने लोग खड़े हैं वे कैसे  आए हैं, उनकी कितनी श्रद्धा है और उन्हें कितना विश्वास है। वह श्रद्धा और विश्वास के साथ आयेहै या सिर्फ मौज लेने के लिए आयेहै, ये सब मुझे उस स्क्रीन पर दिखाई देता है। मैं एक सेकंड के भीतर जान जाता हूं कि  किस व्यक्ति को किस मदद की आवश्यकता है और उसे किस तरह राहत पहुंचानी चाहिए।

 

लोगों को खाली सोच से ठीक नहीं किया जा सकता। इसके लिए बहुत ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। और अपनी इस ऊर्जा को बचाए रखने के लिए गुरुदेव को सारी आध्यात्मिक शक्तियों का उपयोग करना पड़ता था। अपने आध्यात्मिक सहयोगियों की मदद से  उन्हें यह सुनिश्चित करना था कि उनके पास सेवा करने के लिए पर्याप्त शक्ति हो। और वह शक्ति आगे भी बनी रहे। 

हम जो कह रहे हैं वह बोलने-सुनने में भले ही आसान लग रहा हो, लेकिन लाखों लोगों में से एक भी व्यक्ति ने वह क्षमता हासिल नहीं की, जो गुरुदेव ने की थी। मैंने उनके साथ सालों बिताए हैं लेकिन उनके जीवन पर विश्वास करना कठिन है, और उनका अनुकरण करना तो और भी कठिन है।

उनके मुख्य एजेंडा में से एक था अपने शिष्यों और अन्य श्रेष्ठ आत्माओं को ट्रेनिंग देना और उनका उत्थान करना। चूंकि अधिकांश शिष्य गैर-परंपरावादी थे और अध्यात्म की ओर उनका झुकाव नहीं था,  इसलिए गुरुदेव का काम दोगुना कठिन था

संत लाल जी,  चौधरी साब,  कृष्ण मोहन जी,  कैप्टन शर्मा,  उद्धव और मैं भी,  और मेरे साथ कई अन्य लोग अजीब हरकतों वाले विचित्र क्लब के सदस्य थे। वरिष्ठतम शिष्य मल्होत्रा जी और बड़े जैन साहब भी हम जैसों से अलग नहीं थे।

ईसा मसीह ने बढ़ईगीरी नहीं की थी, लेकिन गुरुदेव ने की। फिर से आकार देना, घिसाई और फिर पॉलिशिंग करना इस प्रक्रिया में शामिल था। ज़रूरत के मुताबिक़ उन्होंने हमारा दोबारा आविष्कार भी किया।

निरंतरता बनी रहे इसके लिए वह हमसें दूसरों को प्रशिक्षण दिलवाते थे। हम लोगों ने उनके खाली और पारिवारिक समय पर अतिक्रमण कर लिया था। सौभाग्य से, उनकी पत्नी भी उनके काम में उनकी सहभागी बन गई थीं। उनकी कठिनाइयां तो इनसे भी बढ़कर थीं। उन्हें अपने पति को न केवल आगंतुकों और शिष्यों के साथ,  बल्कि गायों और बंदरों के साथ भी साझा करना पड़ा। कैसी विचित्रता है!

आगे हम जिस व्यक्ति से बात करेंगे वह उमा प्रभु हैं। वह और उनके पति सुरेश प्रभु,  महागुरु से बहुत निकटता से जुड़े हुए थे। पेशे से पत्रकार होने के नाते उमा के विचार व्यावहारिक और स्पष्ट हैं।

 

सवालःमैं चाहता हूं कि आप कल्पना करें कि यदि आपको गुरुदेव जैसा भौतिक जीवन जीना पड़ता, तो क्या आपके लिए आसान होता?

उमा जीः मान लीजिए कि अगर मैं उनकी जगह होती, तो जिस जीवन को वह जी रहे थे, वास्तव में मेरे लिए उस जीवन को जीना आसान नहीं होता। वह तमाम नकारात्मकता को अवशोषित करने वाला एक महासागर थे। अगर मेरा जीवन वह जी रहे होते, तो वह इसे किस रूप में लेते पता नहीं,  मेरे लिए उनका जीवन जीना कतई आसान नहीं होता।

 

लाखों लोगों की समस्या सुनना। हर समय नकारात्मक ऊर्जाओं को अवशोषित करना और उनका इलाज करना। लोगों को उनकी आध्यात्मिक विकास योजनाओं में मदद करना।उमा का यह कहना पूरी तरह से ठीक है कि वह एक महासागर थे, जो नकारात्मकता को अवशोषित करते रहे।

गिरगिट को रंग बदलने में कुछ मिनट लगते हैं, लेकिन गुरुदेव को यह काम सेकंड के भीतर करना था। लोग उनके साथ अपनी खुशियां बांटने आते थे। जब उनकी कोई मनोकामना पूरी हो जाती, तो वे अपनी ख़ुशियां साझा करने के लिए आते और जब कुछ बुरा घटित होता तो वे लोग उनके पास अपने दुःख का बोझ उतारने के लिए आते थे। हर कुछ सेकंड में मूड बदलना आसान नहीं था लेकिन उन्हें करना पड़ता था। 

एक और समस्या जो सामने आती थी वह यह थी कि लोगों ने सुन रखा था कि कुछ लोगों की समस्याएं बहुत कम समय के अंदर दूर हो गईं, तो वे अपने लिए भी वही उम्मीद करते थे। अक्सर गुरुदेव को इन लोगों को बार-बार बुलाने की जरूरत होती थी और धीरे-धीरे इलाज करना होता था। वह लोगों को लंबी क़तारों में घंटों तक इंतजार करवाते थे और शक्तियों से इन लोगों के धैर्य और विश्वास को पुरस्कृत करने का आग्रह करते समय इसे वजह के रूप में उपयोग करते थे।

हममें से अधिकतर लोग, जिन्होंने उनके साथ बहुत समय बिताया, सब यही बात कहेंगे कि उनका काम आसान बिल्कुल नहीं था। लगभग असंभव था।

पहाड़ों पर चढ़ना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए प्रयास और मेहनत की आवश्यकता होती है। इससे तनाव होता है और इसके लिए शारीरिक प्रयास करने पड़ते हैं। लेकिन एक बार आप ऊंचाई पर पहुंच गए, तब आपका दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है। 

पराक्रमी व्यक्ति के कंधे से कंधा मिलाकर चलें। शानदार नतीजा हासिल करने के बाद आपको एहसास होगा कि आपकी मेहनत सार्थक हुई। जड़ें भले ही कड़वीं हों, पर फल मीठा होगा।

जिंदगी की असली उड़ान अभी बाक़ी है

मंजिल के कई इम्तिहान अभी बाक़ी हैं.

अभी तो नापी है मुट्ठी भर जमीं हमने

अभी तो सारा आसमान बाक़ी है

अभी तो सारा आसमान बाक़ी है।