The Guru of Gurus - Audio Biography

समानता

October 01, 2021 Gurudev: The Guru of Gurus
The Guru of Gurus - Audio Biography
समानता
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 सिर्फ़ इसलिए कि  गुरुदेव सभी जीवों के साथ आत्मिक समानता महसूस कर सकते थे, इसका मतलब यह नहीं था कि बाकी लोग भी ऐसा कर सकते थे। हम उस तरह से सोच सकें उस के लिए हमारे दिमाग़ को सक्रिय करने और हमे प्रभावित कर पाने में उन्हें सालों लग गए। वे वाकई अपने काम में माहिर थे। 
 

गुरुदेव ऑनलाइन गुरुओं के गुरु - महागुरु की ऑडियो बायोग्राफी प्रस्तुत करता है।

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आप गुरुदेव की जिंदगी और उनकी विचारधारा के बारे में इस वेबसाइट पर भी पढ़ सकते हैं - www.gurudevonline.com 

सिर्फ़ इसलिए कि वह सभी जीवों के साथ आत्मिक समानता महसूस कर सकते थे, इसका मतलब यह नहीं था कि बाकी लोग भी ऐसा कर सकते थे। हम उस तरह से सोच सकें उस के लिए हमारे दिमाग़ को सक्रिय करने और हमे प्रभावित कर पाने में उन्हें सालों लग गए। वे वाकई अपने काम में माहिर थे।

समानता

मेरा मानना है कि एक व्यक्ति की आभा दूसरों को प्रभावित करती है। गुरुदेव की आभा के तेज ने अपने आस-पास के अन्य लोगों की आभा को समेटकर संतुलित किया। उनकी उपस्थिति ने,  कुछ हद तक अन्य लोगों की चेतना को बढ़ाया। इसे प्रेम कहा जा सकता है, बशर्ते प्रेम शब्द को भावनाहीन लेंस से देखा जाए। 

उनके लिए प्रेम का मतलब दोहरा था - दूसरों के लिए सहानुभूति रखो और उनकी सेवा करो। 

कृष्णमोहन जी एक दिलचस्प व्यक्ति थे। वह आध्यात्मिक क्रियाएं इसलिए सीखना चाहते थे ताकि उनका उपयोग व्यवसाय को बढ़ाने के लिए हो सके। क्या आप इस बात पर विश्वास करेंगे?

सेवा का विचार उनके दिमाग़ में बिल्कुल भी नहीं था। फिर भी,  वह एक महान गुरु बन गए। एक ऐसे गुरू जिन्होंने दुर्गापुर में रहते हुए बंगाल के भीतरी इलाक़ों में अनगिनत लोगों की सेवा की।

 

कृष्ण मोहन जीः शिवरात्रि पास थी और गुरुजी शिवपुरी में थे। गुरुजी ने मुझसे पूछा, "बेटा, क्या तुम मुझे अपने निजी खर्च बता सकते हो?" मैंने कहा “गुरुजी, 2000 से 2500 रुपये हो सकते हैं।" उस ज़माने में। यह वर्ष 1978 की बात है। उन्होंने पूछा, "तुम इतना पैसा किस पर ख़र्च करते हो?" मैंने कहा “मांस-मदिरा, फ़िल्में वग़ैरह। ये मेरे शौक़ हैं। पन्द्रह दिनों में एक शनिवार के दिन मैं कोई काम नहीं करता, केवल मज़े करता हूं।” फिर उन्होंने कहा "बेटा, एक काम करो ये पैसे मुझे दे दो"। गुरुजी को पैसे देने के लिए मैंने तुरंत अपनी जेब में हाथ डाला, यह सोचकर कि गुरुजी पैसे मांग रहे हैं, तो मेरे लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। तब गुरुजी ने कहा, "नहीं बेटा, मुझे पैसों की ज़रूरत नहीं है। बेटा, सेवा करो। मैं तुम्हें अपना आशीर्वाद दूंगा ताकि तुम लोगों को स्वस्थ कर सको। अगर तुम कुछ लोगों को अपना आशीर्वाद देते हो और उनकी तबीयत ठीक करते हो, तो इसमें ग़लत क्या है। यदि तुम्हारे छूने भर से कोई स्वस्थ हो जाता है, तो इसमें तुम क्या खोते हो? जब कोई तुम्हारे पास आए, तो ऐसा करो। अगर और कुछ नहीं कर सकते तो इन पैसों से लोगों को चाय पिलाओ और हो सके तो तुम उन्हें खाना भी दो।

 

गुरुदेव का दर्शन सरल था। उनके काम करने के तरीक़े सीधे-सरल थे। उनकी शिक्षा शब्दजाल से मुक्त थी। 

पी.एच.डी कर चुका व्यक्ति और स्कूल पास-आउट भी उनकी शिक्षाओं को समझ सकता था। मैंने उन्हें कभी श्लोकों का पाठ करते या शास्त्रों का उल्लेख करते नहीं सुना। उन्होंने आध्यात्मिक सिद्धांतों को अस्वीकार कर दिया। वह चाहते थे कि ज्ञान भीतर से प्राप्त किया जाए।

मेरे शुरुआती वर्षों में जब मैं लगभग कुछ भी नहीं जानता था और मुझे लगता था कि मेरे पास पर्याप्त आध्यात्मिक ज्ञान भी नहीं है, तब उन्होंने कहा था कि वह यह सुनिश्चित करेंगे कि उनके पास जो कुछ ज्ञान है, उसका 95% मुझे मिल सके। मैंने जो कुछ भी सीखा और महसूस किया है, उसके लिए मैं उनका आभारी हूं। हालांकि मुझे यक़ीन नहीं है कि अब तक मुझे उतना ज्ञान मिल पाया है जितना वह चाहते थे!

लेकिन कल की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है!

और फिर राजपाल जी भी तो हैं।

 

राजपाल जीः  जब गुरुजी ने मुझे अपना लिया था, तो उन्होंने मुझे कुछ नियम-क़ायदों के बारे में बताया था-क्या करना है और क्या नहीं करना है। फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि मुझे क्या चाहिए? मैं तब चुप था। उसने मुझसे पूछा, “क्या तुम स्वर्ग जाना चाहते हो? मैंने कहा, "मुझे नहीं पता। मैं भगवान शिव से गहरा लगाव महसूस करता हूं, मैं उनके प्रति आकर्षित हूं  और मैं उनसे मिलना चाहता हूं।" उन्होंने कहा, "मैं तुम्हें उससे मिलवाऊंगा। पर तुमको कुछ नियम अवश्य पालने होंगे।"

मैंने कहा, "कैसे? क्या कोई ख़ास तरीक़ा है?" तब उन्होंने कहा था, "भगवान हर इंसान के अंदर रहते हैं। उन्हें परमात्मा कहा जाता है। हर आदमी के अंदर एक आत्मा होती है; परमात्मा का अर्थ है सर्वोच्च आत्मा। इसलिए, यदि आप ईश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो मानव के रूप में मौजूद छोटे-छोटे देवताओं को प्रसन्न करो।"

"मैं यह कैसे करूं," मैंने पूछा।

उन्होंने कहा, "हर व्यक्ति किसी न किसी समस्या, दर्द, बीमारी या दुर्भाग्य से पीड़ित है। तुम इन परेशानियों को दूर करने के लिए काम कर सकते हो।  तुम उनके दर्द को कम करने के लिए काम कर सकते हो। जिन लोगों के लिए तुम काम करोगे, वे तुमको आशीर्वाद देंगे। जब इतनी सारी आत्माएं तुमसे प्रसन्न होंगी, तब भगवान का ध्यान भी तुम पर जाएगा और वह तुमसे अवश्य मिलेंगे।" 

 

गुरुदेव का शायद यह मतलब था कि जब आप आत्मिक चेतना के स्तर तक पहुंच जाते हैं, तब हालांकि आपको मालूम है कि आप भौतिक दुनिया में कौन हैं और क्या हैं, पर आप अपने भीतर की दिव्यता से पहचाने जाते हैं।

 

उन्होंने सेवा की सामान्य धारणा को महिमामंडित करके उलट दिया। यह एहसास दिलाकर कि हम किसी व्यक्ति की नहीं, बल्कि उसके भीतर की आत्मा की सेवा कर रहे हैं,  उन्होंने इसका महत्त्व समझाया। दूसरों की सेवा ने सेवाभाव को सामाजिक रूप से बहुत महत्वाकांक्षी बना दिया। विचार बहुत आसान था इस वजह से लोगों को यह पसंद आ गया।

बक्शी जी, शिमला से गुरुदेव के एक वरिष्ठ शिष्य, एक ख़ुशमिजाज़ इंसान हैं। वह पहाड़ों के अपने अनुभव यहां बता रहे हैं और अपनी बात एक शानदार शेर के साथ करते हैं। 

 

 

बक्शी जी: गुरुजी कहा करते थे, "यदि आप एक व्यक्ति की भी ईमानदारी से सेवा करते हैं, तो भी आप महान माने जाएंगे।" वह कहते थे "ये 108 और 1008 और कुछ नहीं, बल्कि वह संख्या है, जितनी बार स्त्री और पुरुषों की सेवा की है। और इसके बाद आपको उतनी ही महानता हासिल होती जाएगी।" आपने लाखों लोगों की सेवा की होगी, तो यह श्री श्री 108 माना जाएगा। यानी इतनी बार आपने सेवा की है। 

 “हज़ारों साल नरगिस अपनी बे-नूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।

 

हज़ारों साल नरगिस अपनी बे-नूरी पे रोती है

हज़ारों साल नरगिस अपनी बे-नूरी पे रोती है, 

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा

चमन में दीदावर पैदा।


यह अल्लामा इक़बाल का एक बहुत ही अच्छा शेर है। नरगिस एक ख़ूबसूरत फूल है जो आंख से मिलता-जुलता है। लेकिन उसमें दृष्टि नहीं होती है। अपनी खूबसूरती की दौलत से बेखबर नरगिस का फूल हजारों साल तक अपनी बेनूरी पर रोता रहता है कि मुझमें आकर्षण नहीं है। हजारों साल बाद दुनिया में कोई सराहना करने वाला पैदा होता है जो नरगिस को उसकी खूबसूरती का आभास कराता है और दुनिया को उसके बारे में बताता है।


गुरुदेव का मिशन था अपने शिष्यों को इकट्ठा करना। जो शुरुआत में नरगिस के फूल की तरह थे। वे अपने से आगे कुछ नहीं देख पाते थे। एक दीदावर की तरह गुरुदेव ने उन्हें गहरी अंतर्दृष्टि हासिल करने और ख़ुद से परे देखने में मदद की। 

समानता और सार्वभौमिक चेतना पर एक दर्जन से अधिक व्याख्यान हैं और लोगों को प्रभावित करने के तरीक़े हैं। गुरुदेव के आसान उदाहरण और छोटी-छोटी सलाहें हमारे भीतर से दीदावरों को बाहर निकालने के लिए थीं। एक बार फिर, बदलाव लाने का उनका एक ही सूत्र था - सेवा। 

कानपुर के सुरेंद्र जी और गुड्डन जी अपने गुरु के लिए समर्पित थे और दशकों तक सेवा करते रहे। 

 

राजलक्ष्मी जी (गुड्डन): उन्होंने कहा था कि आध्यात्मिक सेवा हम सबको करनी चाहिए। जैसे कि उनका कहना था बड़ा गुरुवार को जनता की समस्याओं और दुःखों को दूर करने की कोशिश करें। गुरुजी का बस एक ही कहना था-जीवित प्राणियों की अधिक से अधिक सेवा करें।

सुरेंदर जीः  राजलक्ष्मी जी ने अब तक जो कहा, वह गुरुजी की शिक्षा ही थी-दूसरों की सेवा करना। अगर सेवा नहीं कर सकते तो कम से कम दूसरों का भला तो करो। उनसे उनके सुख-दुःख के बारे में पूछो, वे खुश हो जाएंगे।

 

गुरुदेव से प्रभावित होकर सुरेंद्र जी, उनकी बहनों और उनकी मां ने सेवा को अपने जीवन का मुख्य ध्येय बना लिया।

गिरिधर लालवानी ने गुरुदेव की सेवा में खेती और पशुसेवा को भी जोड़ा।

 

गिरि जीः  वह अपने हाथों से मवेशियों और जानवरों को खिलाते थे। मैंने उन्हें फ़ार्महाउस पर ये काम करते देखा। फ़ार्महाउस में वह गाय, भैंस, बंदर, हिरण सबकी सेवा करते थे। वह वास्तव में ज़रूरतमंदों को खाना खिलाना पसंद करते थे। ग़रीबों की अलग-अलग तरीक़े से मदद करना भी उन्हें बहुत पसंद था। वह ग़रीबों की बेटियों के कन्यादान में भी हिस्सा लेते थे। यह उनकी सबसे बड़ी ख़सियत थी। वह लोगों को बिना बताए ग़रीबों की बेटियों के विवाह में मदद करते थे। अक्सर वह यह सबकुछ गुप्त रखकर करते थे।

यही बात वह हमें भी सिखाना चाहते थे। "आपको अपने हाथों से सेवा करनी चाहिए। आप लोगों को सेवा करने के लिए प्रेरित तो करें ही, लेकिन आपको ख़ुद भी सेवा करनी चाहिए।" उनका कहना था कि आपको न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि अपनी ज़बान से भी सेवा करनी चाहिए, जिसका अर्थ है कि आपको हमेशा अच्छा बोलना चाहिए। सेवा करते समय आपको विनम्र होना चाहिए। आपकी भाषा कठोर नहीं, मधुर होनी चाहिए।

वह कहते थे कि सेवा में सबकुछ शामिल है। फिर उन्होंने यह भी कहा कि अन्न दान सबसे अच्छा दान है। इसलिए वह हमें अन्न दान, लंगर और जल सेवा करने के लिए कहते थे। उन्होंने सिखाया कि वंचितों को वस्त्र दान करना भी बहुत ज़रूरी है। गरीबों को कपड़े देना, भूखे को खाना खिलाना और प्यासे की प्यास बुझाना बहुत ज़रूरी है।

आइए, माइक, मुंबई के नितिन गाडेकर को दें। उनके विचार बहुत अनोखे हैं। 

 

नितिन जीः  मुझे भीतर से कहीं लगता था कि गुरुजी से मेरा कुछ जुड़ाव है। यह दिखावा नहीं था। और भला वह दिखावा क्यों करेंगे? मेरा मतलब है कि गुरुजी को मेरी ज़रूरत नहीं थी। मेरी कोई हैसियत ही नहीं थी कि वह मुझे अपने साथ रखते या मुझ पर कोई एहसान करते। इसलिए मैंने इस बात को बड़ी गंभीरता से लिया और 25 सालों तक सेवा की। मैंने पूरे दिल से सेवा की। मेरे कहने का मतलब है, गुरुजी ने मुझसे सेवा करवा ली। मैंने गुड़गांव में पिछले कुछ सालों में कई अन्य सेवाएं भी की हैं जैसे चप्पल सेवा या बर्तन साफ़ करने की सेवा वग़ैरह। मुझे लगता है कि तरह-तरह की सेवाओं में कोई अंतर नहीं है।

 

यह एक शानदार टिप्पणी थी। 

मैं एक विचित्र अनुभव का गवाह हूं। जहां बहुत से लोग गद्दी पर बैठ कर उपचार यानी इलाज की सेवा करते थे,  वहीं कुछ लोग ऐसे भी थे जो रसोई में या  जूता स्टैंड पर काम करते थे,  और कई आगंतुकों को चाय और नाश्ता परोसते थे। आपको आश्चर्य हो सकता है, लेकिन निश्चित ही इन सभी की आध्यात्मिक प्रगति में कोई फ़र्क नहीं है। सब समान हैं। कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उनकी सेवा किस प्रकार की है।

रसोई में सेवा करने वाली कई महिलाओं को उनके हाथों में ओम और अन्य प्रकार के चिह्न मिले। उन्हें आध्यात्मिक शक्तियां भी मिलीं। स्थान ने सभी के साथ एक जैसा बर्ताव किया। ये मेरा अनुभव था।

जहां एक ओर उन्होंने सेवा को बड़ा महत्व दिया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को नकारा। प्रदीप सेठी इस बारे में बताएंगे।

 

 

प्रदीप जी:  मुझे एक बड़ा ही अद्भुत अनुभव हुआ। बड़ा गुरुवार का दिन था। सेवा चल रही थी। दोपहर के समय मैं अपने कमरे में चला गया। मैं थक गया था और मैं लगभग एक घंटे तक सोया रहा। मुझे ऐसा दिखाई दिया कि मैं स्थान पर बैठकर सेवा कर रहा हूं और जितने भी भक्त आ रहे हैं वे मेरे पैर नहीं छू रहे हैं, बल्कि मैं उनके चरण स्पर्श कर रहा हूं। यह संदेश था, कि मैं सेवक हूं।

 

कृष्ण मोहन जी विनम्रता के दायरे में रहने की बात को आगे बढ़ाते हैं।  

 

कृष्ण मोहन जी:  दो लोग आए और उन्होंने मेरे पैर छुए। मैं यह देखकर हैरान रह गया। गुरूजी अपने कमरे में बैठे थे। मैं दुर्गापुर से आए हुए कुछ लोगों के साथ था। मैं गुरुजी से मिलने अंदर गया और उन्हें इस घटना के बारे में बताया। उन्होंने कहा, "बेटा, ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि ऐसा मैं चाहता हूं। तुम सेवा पर ध्यान दो। तुम्हारी सेवा से लोगों को राहत मिलेगी।” उन्होंने अपने शिष्यों को यह समझाया कि उन्हें कभी भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं करना चाहिए। वह मुझसे बस इतना ही कहते, “बेटा, तुम अपनी सेवा ठीक से कर रहे हो। मैं तुम्हारे मंत्रों का भी हिसाब रख रहा हूं। तुमको केवल सेवा करते रहना है।"

 

गुरुदेव ने हम सभी को बताया कि जो लोग हमें उनकी सेवा करने की इजाज़त दे रहे हैं, हमें उन लोगों का आभारी होना चाहिए। आख़िर इन्हीं लोगों ने हमें अपनी गतिविधियों, अपने स्वरूप और अपने चरित्र को सुधारने का मौक़ा दिया है। इन्हीं लोगों ने हमारी आध्यात्मिक यात्रा में सांपों से बचने और सीढ़ी पर चढ़ने में हमारी मदद की है।

 

उन्होंने घमंड नहीं विनम्रता की सिफ़ारिश की। हमें आम लोगों की तरह कपड़े पहनने,  बात करने और चलने-फिरने के लिए कहा। संदेश यही था कि हमें अपने अंदर देवत्व को बढ़ाना है और बाहर से विनम्र बने रहना है। 

 

हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से गांव सुनेत के रहने वाले, सुरेश कोहली, यहां बता रहे हैं कि उनके लिए सेवा का क्या मतलब है:

 

 

सवाल: मैं आपसे कुछ सवाल पूछना चाहता हूं। आपने मुझे जो बताया है, मेरे ये सवाल उसके भौतिक पहलू से अलग हैं। यह कहना बहुत आसान है कि उन्होंने सेवा की, यह किया, वह किया, लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि इस सेवा को करके उन्होंने दरअसल कौन-सा महत्त्वपूर्ण मूल्य हासिल किया?

सुरेश जीः  सेवा के बारे में सबसे अच्छी बात लोगों का आशीर्वाद पाना है। आशीर्वाद से बढ़कर कोई भी क़ीमती वस्तु नहीं। इसकी किसी से कोई तुलना भी नहीं की जा सकती। आशीर्वाद ख़रीदा नहीं जा सकता है और आशीर्वाद देने के लिए किसी को मजबूर भी नहीं किया जा सकता है। यह किसी भी व्यक्ति की अंतरात्मा से निकलता है। "भगवान तुम्हारा भला करें", इस आशीर्वाद से बढ़कर कुछ भी नहीं है। यह सेवा का प्रतिफल है। कोई इच्छा न करना। यह बस सेवा, सेवा और सेवा है।

 

गुरुदेव सेवा पर अपना मालिकाना हक़ नहीं जताते थे। वह ख़ुद को एक माध्यम के रूप में देखना पसंद करते थे। उन्होंने हमेशा अपनी सेवा का श्रेय अपने गुरु, बुड्ढे बाबा, को दिया और कहते थे, 'वह करते हैं, मैं नहीं'। 

 

महागुरु की प्रेरणा ने हमें कर्म के दायरे से बाहर निकाला। 'मैं करता हूं' से 'ऐसा होता है' तक पहुंचाया।

 

मालिकाना न जताने की वजह से हमें अपने जमा किए हुए कर्मों को ख़र्च करने और नए कर्मों को घटाने में मदद मिली। जब हमने सकारात्मक का मालिकाना छोड़ा, तभी हम नकारात्मकता को भी छोड़ सके थे। इस प्रकार आध्यात्मिक यात्रा में एक सीढ़ी जोड़ी गई।

 

दुर्गापुर में रहने वाले कृष्ण मोहन जी सेवा की अवधारणा को लेकर एक नई दृष्टि के साथ हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। मैं इस संबंध में उनके जुड़ाव का गवाह हूं। वह इस ढंग से काम करते हैं मानो जो कुछ है आज ही है, कल कुछ नहीं। वह अपना 20% वक़्त व्यावसायिक कामकाज में और बाक़ी वक़्त उन लोगों की सेवा में व्यतीत करते हैं जो मदद के लिए हर दिन स्थान पर आते हैं। 

 

सवालः जब गुरुदेव ने आपको सेवा दी थी, तो क्या उन्होंने आपको सेवा करने का कोई प्रशिक्षण दिया था?

कृष्ण मोहन जीः उनके द्वारा बोला गया एक शब्द हज़ारों मंत्रों से कहीं अधिक शक्तिशाली था- "मुझ पर ध्यान केंद्रित करो,  सेवा करते रहो और जिसे तुम छुओगे वह ठीक हो जाएगा और कुछ नहीं"।

 

सवालः तो, आपके कहने का मतलब यह है कि जब आप किसी व्यक्ति पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं और अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा का उपयोग करते हैं, तो एक ऊर्जा आपके भीतर सक्रिय हो जाती है और वह उस मरीज़ को दे दी जाती है जिसका आप इलाज कर रहे हैं? ठीक है न?

 

कृष्ण मोहन जीः मेरे कहने का मतलब यह है कि जब मैं सेवा कर रहा होता हूं, तो उस समय मैं गुरुदेव पर ध्यान केंद्रित करता हूं,उनकी शक्ति सीधे मरीज़ के पास जाती है या मेरे ज़रिये मरीज़ के पास चली जाती है।

 

सवालः तो, गुरुदेव ने आपको क्या सिखाया?

 

कृष्ण मोहन जीः उन्होंने मुझे सिखाया कि प्रत्येक प्राणी के भीतर परमात्मा का वास है और मैं उस परमात्मा को गुरु के रूप में देखता हूं। गुरुदेव कहते थे कि आपको उस व्यक्ति के पाप-पुण्य से कोई लेना-देना नहीं है-आपको बस सेवा करना है। मैं गुरुदेव के निर्देशों का पालन करता था और सेवा करता था। मैंने कभी उस व्यक्ति के बारे में अपनी कोई धारणा नहीं बनाई। मैंने उस व्यक्ति में केवल अपने गुरुदेव को देखा। परमात्मा देखा, जो सत्य है।

 

 

जब गुरुदेव ने बुड्ढे बाबा के निर्देश पर सेवा करनी शुरू ही की थी कि दो आदमी उनसे मदद मांगने के लिए आए। गुरुदेव को भीतर से लगा कि इन दोनों ने पहले ज़रूर कोई ग़लत काम किए हैं। और वह इस बात को लेकर दुविधा में थे कि उनका इलाज करें या नहीं। 

 

फिर उन्होंने अंदर से एक आवाज़ सुनी, "तुम्हारे पास जो कोई आए, उसकी सेवा तुमको बिना कोई धारणा बनाए या पक्षपात किए बिना करनी है।" और उसके बाद,  उन्होंने वैसा ही किया और हम सबको भी करने के लिए कहा।

 

संतोखसर का गुरुदेव के जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्तर है। यहीं पर चमत्कारी बुड्ढे बाबा ने उन्हें गृहस्थ आश्रम वापस जाने का निर्देश दिया था क्योंकि वहीं से उनका आध्यात्मिक विकास होना था। इसके बाद उनकी तपस्वी यात्रा समाप्त हो गई और वह पारिवारिक जीवन में लौट आए।

गुरुदेव ने मुझे एक बार बताया था कि कैसे प्राचीन काल में महान ऋषि विश्वामित्र महागायत्री मंत्र का जाप करते हुए अमृतसर के संतोखसर सरोवर को तैरकर पार करते हुए अपने पापों को धोते थे। यह मंत्र उनका अपना बनाया हुआ था। उनके इस उदाहरण ने मुझे जीवन की एक तरक़ीब सिखाई।   

मैंने सीखा कि अगर महान विश्वामित्र अपने पाप धो सकते हैं, तो कोई और भी धो सकता है। यह तैरना नहीं था,  यह मंत्र नहीं था,  यह 'मैं कर्ता हूं नहीं’  की अवधारणा थी। मुझे पाप धोने की अपेक्षा नहीं है,  लेकिन मैंने इसके पीछे का दर्शन समझा। आपके कर्म आपके ही हैं। ये अच्छे या बुरे तभी होंगे, जब आप उनकी जवाबदारी उठाएंगे। 

विषय पर वापस आते हैं।  अमृतसर में स्थान चलाने वाले प्रवीण जी अपने विचार साझा कर रहे हैं।

 

सवालः क्या गुरुदेव ने संतोख्सर सरोवर में ध्यान किया था?

प्रवीण जीः  जी हां।

सवालः कृपया हमें उस इलाक़े के बारे में बताएं। यह कहां है? क्या आप उसका वर्णन कर सकते हैं?

प्रवीण जीः यह स्वर्ण मंदिर के पास है। स्वर्ण मंदिर से यह 5 मिनट की दूरी पर। 

सवालः अच्छा, और गुरुदेव ध्यान के लिए कहां बैठे थे?

प्रवीण जीः जी हां। यहां संतोख्सर गुरुद्वारा भी है। एक मंदिर और एक शिवलिंग भी। सबकुछ एकसाथ था। 1994 में,बग़ावत के दौरान  उन्होंने मंदिर और गुरुद्वारे को अलग कर दिया। उनके यहाँ एक पुराना शिवालय है जहां एक पीपल का पेड़ है जिसके नीचे गुरुदेव ने ध्यान किया था। यहां उन्होंने 40 दिनों तक ध्यान किया था।

सवालः क्या उन्होंने आपको इस जगह के बारे में कुछ बताया था?

प्रवीण जीः 1985 में मैंने स्थान पर सेवा शुरू की थी। गुरुजी ने मुझसे कहा था,"जिस स्थान पर मैंने उस पीपल के वृक्ष के नीचे तपस्या की, उस स्थान से मिट्टी निकाल कर अपने स्थान पर रख लो। तुम सेवा करते रहो इससे बहुत से लोगों को बड़ा लाभ होगा।" मैं 1985 से सेवा कर रहा हूं। लोग आ रहे हैं और गुरुजी उन पर अपनी कृपा बरसा रहे हैं।

 

रवि त्रेहन जी को सुनिए।

 

सवालः गुरुजी के संदेश आपको सपने में मिलते हैं या स्वप्नहीन अवस्था में?

त्रेहन जी: यह एक बहुत ही ख़ास सवाल है। मेरा उनसे संवाद हुआ है, अगर आप उन्हें संदेश कहते हैं, तो हम इसे आत्मिक रूप कहते हैं। मैं एक और माध्यम से उनके साथ बातचीत करता हूं, वह फ्लैश, जिसमें आपके दिमाग़ में कोई विचार चमकता है। अगर कोई मेरे पास आता है और मुझसे मदद मांगता है, तो मैं अर्धचेतन अवस्था में उन्हें समाधान देता हूं। 5 मिनट के बाद अगर वह मुझसे कहता है कि मैंने उसे अमुक अमुक समाधान दिया है तो मैं मुझे याद नहीं आता कि मैंने वैसा कुछ बताया था, लेकिन उसकी समस्याओं का समाधान ज़रूर हो जाता है। ये वे संदेश होते हैं जो मेरे दिमाग़ में कौंधते हैं, वे मेरे माध्यम आगे जाते हैं। तो, मैं उस समय में एक माध्यम बनता हूं और कर्ता कोई और है जिसने किसी के लिए मुझे संदेश दिया है। वह संदेश उस व्यक्ति के पास जागरूक अवस्था में गया है लेकिन मुझे नहीं पता कि वह संदेश क्या है या क्या वह संदेश उसे भेजा गया या नहीं। लेकिन उसकी समस्या का समाधान हो जाता है। मैंने ऐसा कई मौक़ों पर अनुभव किया है। रवि त्रेहन ने इसमें कुछ नहीं किया है। इसे गुरु कृपा कहते हैं। ये कृपा उन पर होती है जो आशान्वित हैं और इस स्थान से जुड़े हुए हैं। गुरुजी कहते थे कि वह अपने स्थान से जुड़े लोगों का कल्याण संबंधित स्थान के संचालकों के माध्यम से करेंगे। 

 

अपने रूप में सेवा करना या उस महान शक्ति के प्रतिनिधि के रूप में सेवा करने में एक महीन अंतर था, जिसे हममें से अधिकांश लोगों ने समझा।

हिमाचल, कोटला, के सुरेश शर्मा जी से जानते हैं उनकी सीख।

सवालः तो सेवा कब होती थी? एक सप्ताह या एक महीने में इलाज कराने के लिए वहां 40-50 मरीज़ तो आते ही होंगे?

सुरेश शर्मा जीः  हां। अगर मैं कहता हूं "मैं तुम्हें ठीक कर दूंगा", तो वह ठीक नहीं होता, लेकिन जब मैं गुरुजी का आह्वान करता हूं, तो वह ठीक हो जाता है (हंसते हैं)। अगर कोई व्यक्ति कहता है कि उसकी तबीयत ठीक नहीं हो रही है, तो हम केवल गुरुजी से प्रार्थना करते हैं और उसकी तबीयत ठीक हो जाती है। अगली बार वह व्यक्ति आकर बताता है कि वह यहां आने के बाद वह ठीक हो गया।

 

अक्सर अपने आप में विश्वास ही गुरु या किसी उच्च शक्ति में विश्वास का दूसरा रूप होता है। जब आप उच्च शक्ति को श्रेय देते हैं, तो आप टेलीपैथिक रूप से उस उच्च शक्ति की कृपा को आमंत्रित कर रहे होते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से इसका हमेशा अभ्यास करता हूं और फिर हर मामले में मुझे ख़ुद को अलग से याद दिलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन इस तरह का अभ्यास करने के हम सभी के अपने-अपने तरीक़े होते हैं।

 

“अपने से पहले दूसरों की सेवा”, सुनने में ऐसा लगता होगा कि इस वाक्य को बार-बार दोहराया जा रहा है, लेकिन यही उनके जीवन का ध्येय वाक्य था ! उन्होंने कई बार कहा, "तुम मेरा काम करो और मैं तुम्हारा ख्याल रखूंगा"। मैंने और  मेरे अधिकांश गुरु भाइयों ने भी इसका अनुभव किया है।

गुरुदेव उन लोगों की बहुत अधिक परवाह करते थे जो दूसरों की सेवा में डूबे रहते थे, न कि उन लोगों की जो दिखावा करते थे। 

आगे एक ऐसी कहानी आ रही है जो मेरी बात को साबित करती है। बिट्टू जी याद करते हैं कि कैसे उन्होंने अपने गुरु का सम्मान अर्जित किया।

 

बिट्टू जीः 19 अप्रैल का दिन था और गुरुजी ने कुल्लू-मनाली में एक कैंप लगाया था। गुरुजी के आशीर्वाद की वजह से मुझे उनके साथ लगभग हर जगह यात्रा करने का मौक़ा मिला। एक रात उन्होंने मुझे तैयार होने के लिए कहा। हम कुछ दिनों के लिए कुल्लू-मनाली जाने वाले थे। मैंने उनसे एक निवेदन किया। मैंने उनसे कहा कि आपके आशीर्वाद से मैं बहुत दूर-दूर तक कई अद्भुत स्थानों की यात्रा कर चुका हूं। हमारे साथ पूरनजी नाम का एक शख्स था। उनकी पत्नी कांता और उनकी बेटी बिट्टो ने कभी किसी भी जगह की यात्रा नहीं की थी और वे हमेशा उनके  साथ दौरे पर जाना चाहते थे। इसलिए मैंने उनसे कहा कि इस बार कृपया उन्हें अपने साथ ले जाएं।

उनका कैंप जो 7-8 दिनों तक चलना था, 10-12 दिनों तक चला। फिर गुरूजी को यहां 4-5 दिन कोई और काम था। एक शाम गुरुजी जिप्सी कार से घर लौटे। उसने मुझे कार की चाबियां दीं, कहा कि घर जाकर कपड़े ले आओ और तैयार हो जाओ क्योंकि हमें कल वापस जाना है। मैंने उनसे कहा कि मैं कार की सर्विसिंग करवा दूंगा लेकिन उनके साथ नहीं जाऊंगा। उन्होंने मुझसे पूछा क्यों? क्या तुम्हारे पास कोई और काम है? क्या पैसे की वजह से नहीं चल रहे हो? मैंने कहा, "यदि आप मेरे साथ हैं, तो हमें पैसे की कभी भी कमी नहीं होगी। क्योंकि हम जितना चाहते हैं आप उतना पैसा हमें देते हैं। इसलिए यह वजह नहीं है।" तो उन्होंने मुझसे कहा कि कम से कम कार की सर्विसिंग करवा लो और आ जाओ। मैंने ठीक वही किया। शाम को 6.30 या 7.30 बजे थे और मैं अपने छोटे-से कमरे में था। गुरुजी कहीं से आए और मुझसे पूछा कि मेरे कपड़े कहां हैं, और मैं तैयार क्यों नहीं हुआ। मैंने उन्हें याद दिलाया कि मैंने इस यात्रा में शामिल न होने के बारे में पहले ही बता दिया था। उन्होंने कहा, "मैं तुमको लाहोल स्पीति ले जाऊंगा।" मैं फिर भी राज़ी नहीं हुआ। उस क्षण, वह वास्तव में क्रोधित हो गए क्योंकि वह मुझे साथ चलने के लिए कह रहे थे और मैं तैयार नहीं हो रहा था।

सुबह 4.00 बजे वह जाने के लिए तैयार हो गये। मैं भी उठा, गुरुजी के पास गया और सिर झुकाया। उन्होंने मेरे सिर को छुआ और मुझे आशीर्वाद दिया लेकिन एक शब्द भी नहीं बोले। हमने आख़िरी बार एक-दूसरे की आंखों में देखा और वह चले गए। गुरुजी के साथ यात्रा में शामिल नहीं होने का कारण यह था कि उस तारीख से 25 दिनों के बाद एक गुरु पूजा होने वाली थी। उस समय, हम अपने मेहमानों को ठहराने के लिए आस-पास के लोगों से किराए पर कमरे लेते थे, साथ ही अन्य छोटे-छोटे काम जैसे तंबू लगाना, पुलिस से अनुमति लेना आदि काम भी करने होते थे। गुरुजी जल्दी ही कार्यक्रम वाली जगह पर आ गए। उन्होंने एक शब्द नहीं बोला। मैंने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने मुझसे कुछ नहीं पूछा। लेकिन उन्हें इस बात पर भरोसा था कि अगर ये बच्चे होंगे तो सब कुछ आसानी से हो जाएगा। सब कुछ उन्होंने ही किया था लेकिन उन्होंने हमें देखरेख करने के लिए रखा था। सोमवार की सुबह तक समारोह बहुत अच्छे ढंग से समाप्त हो गया था। सभी श्रद्धालु अपने-अपने घर के लिए निकल चुके थे। गुरुजी अपने कमरे में बिस्तर पर आराम कर रहे थे और मैं उन्हें एक गिलास लस्सी देने गया। उन्होंने ट्रे से गिलास उठाया और अपने पीछे रख लिया। पल भर में वह अपनी जगह से उठ खड़े हुए। मैं आपको बता भी नहीं सकता कि उसने मुझे कितनी मज़बूती से गले लगाया। उसने मेरे माथे को लगभग 100 बार चूमा होगा और ख़ुश होकर उन्होंने मुझसे कहा, "बिट्टू, इस दुनिया में किसी भी जगह का नाम बताओ जहां तुम जाना चाहते हो, और देखो कि मैं तुम्हें वहां ले जाता हूं या नहीं! मैं केवल इस वजह से तुमसे चलने का आग्रह कर रहा था क्योंकि मैं देखना चाहता था कि तुम चलते हो या नहीं। मुझे पता था कि जल्दी ही गुरु पूजा होने वाली है। लोग पूजा के दौरान हमारे पास आते हैं और वही जो असली 'हरि' (भगवान) हैं। और अगर गुरु उनकी सेवा करने के लिए मौजूद नहीं होगा तो वह व्यर्थ है। उनके कारण ही हमारा अस्तित्व है। गुरू के दरबार में आए लोगों की सेवा ही सच्ची नारायण सेवा है। लोग प्रसन्न होने चाहिए। वास्तविक नारायण सेवा वही है।"

 

मैं कुछ सवाल पूछने के लिए डॉ शंकरनारायण से मिलने गया।

 

सवालः आपके अनुभव में एक-दो बैठकों में पूरी तरह या आंशिक रूप से स्वस्थ होने वाले लोगों का प्रतिशत क्या था ?

डॉ.शंकरनारायण जीः ऐसे लोग भी हैं जिन्हें बहुत अच्छे परिणाम मिले हैं और कुछ अच्छे नहीं भी हुए हैं। लेकिन मैंने समझा है, वह आपको बताता हूं, यही बात मैं सभी लोगों को बताता था, कि जो व्यक्ति यहां आता है, भले ही उसे मनमुताबिक़ नतीजा नहीं मिल पाता लेकिन उसे यहां अपनी समस्याओं से लड़ने का आत्मविश्वास मिलता है। मैं अपना उदाहरण बताता हूं। लोगों ने मुझसे कहा कि यहां आकर भले ही आपकी समस्या का समाधान नहीं हो पाया हो लेकिन आप समस्या को साहसपूर्वक और बिना किसी डर के अलविदा कह सकेंगे। यही बात सबके साथ हुई है। यहां तक कि गुरुजी भी मुझसे कहते थे, "बेटा लोग आते हैं, यहां जो भी आता है खाली हाथ नहीं जाता।"

मेरी आध्यात्मिक यात्रा लगभग उसी समय शुरू हुई जब सुरेश प्रभु की आध्यात्मिक यात्रा शुरू हुई थी। गुरुदेव ने कई मौक़ों पर कहा कि सुरेश एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक हस्ती बनेंगे और दुनिया भर में लोग उनकी बात सुनेंगे। चूंकि सुरेश के पास उस समय पासपोर्ट भी नहीं था,तो मैं और वह हैरान रह गए कि ऐसा कैसे हो सकता है?

लगभग एक दशक बाद हमारे पास जवाब था।

सुरेश अपना बढ़ा हुआ राजनीतिक क़द देखकर ख़ुश हैं। उनके लिए यह एक अजूबा था और रहेगा!

 

सुरेश प्रभु जीः गुरुजी का आपसे सेवा करवाने का तरीक़ा कई रूपों में हो सकता है। जैसे कि गुरुजी ने मुझे कोंकण से लोकसभा के लिए चार बार चुनवाया। हम वहां बहुत सारे सामाजिक कार्य कर रहे हैं। इसका लोगों के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। हो सकता है कि लोगों को यह पता न हो कि इन कामों के लिए मैं सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हूं और न ही मैं इसे प्रचारित करने की कोशिश कर रहा हूं। यह एक ऐसी सेवा है जिसने लोगों के जीवन को प्रभावित किया है और वास्तव में गुरुजी हमेशा कहते थे कि आपको स्वयं सेवा करते हुए नहीं दिखना चाहिए और इसलिए वे बहुत अगोचर थे। यहां तक कि कई बार मैंने गुरुजी को यह कहते हुए सुना है कि "जो मैं हूं वह मैं नहीं, गुरूजी हैं"।

सवालः किसी और की ओर इशारा करते हुए..

सुरेश जी:  हां, वह हमेशा किसी की ओर इशारा करते हुए कहते थे कि वह गुरुजी हैं। मैं किसी और ऐसे आध्यात्मिक व्यक्ति को नहीं जानता, जो अपने किए गए किसी काम का श्रेय स्वयं नहीं लेना चाहेगा। आज राजनीति में तो हम उस काम का श्रेय भी ले लेते हैं जो हमने नहीं किया। लेकिन यहां वह व्यक्ति है जो उन चीज़ों का श्रेय लेने को तैयार नहीं है जिनके लिए सीधे तौर पर वही ज़िम्मेदार है।

सवालः जब आप सरकार में काम कर रहे होते हैं तो यह हमेशा एक बहुत ही जटिल मुद्दा होता है कि आप अध्यात्म को राजनीति से जोड़ना जानते हैं। क्या आपको ऐसा करने में कभी कठिनाई हुई है?

सुरेश जी: बिल्कुल सही। दरअसल, सरकार में होने के लिए 2-3 तत्व आवश्यक होते हैं और विशेष रूप से कैबिनेट मंत्री होने के नाते आपके पास बहुत अधिक अधिकार, एक बड़ी शक्ति होती है। जब आप किसी काग़ज़ पर हस्ताक्षर करते हैं तो यह भारत सरकार का हस्ताक्षर होता है क्योंकि आपके ऊपर कोई अथॉरिटी नहीं होती है, बेशक प्रधान मंत्री रहते हैं, लेकिन एक कैबिनेट मंत्री के रूप में उन्होंने आपको एक मंत्रालय की कुछ ज़िम्मेदारियां सौंप दी हैं। चूंकि उस कैबिनेट मंत्री का आदेश उस मंत्रालय का अंतिम आदेश होता है तो आपको उस शक्ति के उपयोग के बारे में बहुत सावधान रहना चाहिए क्योंकि शक्ति आग की तरह है, इससे आप खाना भी बना सकते हैं या घरों को जला भी सकते हैं। मुझे होश में रहना था। गुरुजी का धन्यवाद, सत्ता मेरे सिर पर कभी सवार नहीं हुई। मैंने कभी सत्ता का दुरुपयोग नहीं किया। मैंने कभी किसी को परेशान नहीं किया। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। एक बार किसी ने किसी गलत काम के लिए किसी कर्मचारी की सेवा समाप्त करने के लिए मंत्री के पास शिकायत की। हमेशा नहीं, कभी-कभी, बहुत बड़ी सज़ा से बचना भी चाहिए। इसलिए जब भी मेरे पास ऐसी कोई बात आती थी तो मैं उस शख्स को फोन करके उसका पक्ष जान लेता था। एक व्यक्ति था जिसकी पेंशन मेरे अधिकारियों की सिफ़ारिश पर रोकी जानी थी। मैंने उस व्यक्ति को बुलाया। मैं समझना चाहता था कि वास्तव में उसने किया क्या है। वह कनिष्ठ अधिकारियों में से एक था, और न तो वह इसे रोक सकता था, न अलग हो सकता था। मैंने कहा नहीं पर किसी ऐसे अपराध के लिए जो उसने वास्तव में नहीं किया है, उसकी पेंशन रोकना सही नहीं है। वह किसी श्रृंखला का हिस्सा होने के कारण सीधे ज़िम्मेदार हो सकता है। आप जानते हैं कि सरकार पदानुक्रम की एक श्रृंखला है। आपके साथ बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं इसलिए आप एक श्रृंखला का हिस्सा हैं। वैसे भी आपको किसी के बदले में ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। मैंने कहा नहीं, पर यह सही नहीं है। लेकिन मैंने गुरुजी की इस सोच को ध्यान में रखा कि सेवा एक ऐसा काम है जो आप कर सकते हैं। एक और बात यह है कि आप जो नीति बनाते हैं वह न केवल कुछ लोगों, बल्कि लाखों लोगों को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। एक उदाहरण गुरुजी के आशीर्वाद से हम एक विद्युत अधिनियम संसद में लेकर आए। इस क़ानून की वजह से लोगों को पहले से ज़्यादा बिजली मिल रही है। यह उस नीति की शक्ति है और ऐसा केवल इसलिए संभव हो सका क्योंकि मैं महत्त्वपूर्ण पद पर बैठा था। तो, गुरुजी के आपसे सेवा करवाने के तरीक़े अलग-अलग हो सकते हैं। 

 

सुरेश जी की कहानी उन्हें हमेशा याद दिलाती रही कि वह कर्ता नहीं है और इस एहसास ने उन्हें आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ और विनम्र बनाए रखा है। वह अपने कार्यालय का उपयोग करके अधिक से अधिक लोगों की मदद करने में नियति को धन्यवाद देते हैं। कृतज्ञता और आत्म-विकास की मिली-जुली भावनाओं ने उनके राजनीतिक स्वरूप को आकार दिया है। उन्हें उमा के रूप में पत्नी मिली हैं, जो उनके लिए किसी आशीर्वाद से कम नहीं हैं। वह उनके परोपकारी कार्यों में बड़ी मददगार हैं। 

इसके बाद, लाल साहब से साथ बातचीत के लिए टोरंटो चलते हैं।

 

लाल जीः  गुरुजी कहते थे, "बेटा, ये लोग जो 7 और 10 घंटे से लंबी क़तारों में इंतज़ार कर रहे हैं, मैं एक तरह से उनकी परीक्षा ले रहा हूं।" 3.5 किमी लंबी क़तारें हुआ करती थीं। वह कहते, "मैं उनकी परीक्षा ले रहा हूं ताकि मैं उन्हें पुरस्कृत कर सकूं। तपस्या के बिना कुछ नहीं होता। मैं भी वही काम करता हूं, यहां तक कि टोरंटो में भी लोगों को 2 से 2 1/2 घंटे इंतज़ार करना पड़ता है। मैं चाय नहीं पीता या कोई कॉफ़ी ब्रेक नहीं लेता। मेरे ब्रेक लेने का मतलब है कि इन लोगों को 15 मिनट और इंतज़ार करना पड़ेगा। वे मुझसे मिलने नहीं आते। वे अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आते हैं। कोई मुझे बिना वजह फ़ोन नहीं करता। वे मुझे इसलिए बुलाते हैं क्योंकि उन्हें गुरुजी की ज़रूरत है।

 

आध्यात्मिक सेवा से पहले ज़रूरी है किसी अंग विशेष के रोग के लक्षणों को ठीक करना। भीतरी अंगों से आगे आंतरिक अस्तित्व की यह बात बहुत गहरी है। यह इलाज करने वाले और स्वस्थ होने वाली दोनों की आत्माओं के बीच का सहयोग है। यह एक-दूसरे के बीच आस्था का संपादन है। 

राजपाल जी अच्छे और आसान तरीक़े से बताते हैं कि गुरुदेव ने उन्हें क्या समझाया।

 

राजपाल जीः जब लोग मेरे पास आते हैं तो वे कहते हैं कि उन्हें ऐसी बीमारी है जो कई इलाजों और कई दवाओं के बाद भी ठीक नहीं हो रही है। "मैं उनका भाग्य फिर से लिखता हूं। बीमारी पर प्रहार करता हूं और बीमारी ग़ायब हो जाती है। क्योंकि मैं गुरू हूं।" मैंने एक बार उनसे कहा,  "गुरुजी, क्या भगवान आपसे नाराज़ नहीं होंगे? (हंसते हुए) आप भगवान की इच्छा को बदलते हैं, मिटाते हैं और फिर से लिखते हैं-क्या वह आपसे नाराज़ नहीं होंगे?" उन्होंने कहा, "वह(ईश्वर) बहुत ख़ुश हो जाता है।" मैंने कहा, "आप उसका लिखा हुआ मिटाते हैं तो उसे तो नाराज़ होना चाहिए।" उन्होंने कहा, "नहीं बेटा, जब मैं ईश्वर का बुख़ार ठीक करता हूं, ईश्वर की बीमारी को दूर करता हूं तो ईश्वर बहुत ख़ुश होता है।"

"गुरुजी, आप किसके बारे में बात कर रहे हैं?" वह कहते हैं, "ज़ाहिर है भगवान के बारे में बात कर रहा हूं। वही तो सभी मनुष्यों के अंदर है। मैं उसे प्रसन्न करता हूं। मैं भगवान की बीमारियों को दूर करता हूं। और उन्होंने मुझे यह क़द, गुरु का यह पद, एक शक्ति के साथ दिया है। मैं अपनी इस शक्ति का उपयोग करता हूं—मैं ही यह सब कर सकता हूं, यहां तक कि भगवान भी नहीं कर सकते, क्योंकि मैं एक गुरु हूं। मैं नियति को फिर से लिखता हूं; यदि मैं ऐसा न करूं, तो मरीज़ ठीक नहीं होंगे।”

 

अक्सर उनकी अवधारणाओं को समझना मुश्किल होता था। “भगवान या देवत्व या जिसे पाश्चात्य लोग गॉड कहते हैं, मैं उन्हीं के कष्टों को दूर करता हूं और वही उन्हें प्रसन्न करता है। उन्होंने मुझे गुरु का दर्जा दिया है और उन्हें ठीक करने का अधिकार दिया है।“

हालांकि ये शब्द बिल्कुल अस्वाभाविक लगते हैं यदि आप गहराई से सोचेंगे, तो आप महसूस करेंगे कि इलाज कराने वाला, इलाज करने वाला और इलाज करने की ताकत सभी समान हैं।

खंडसा फार्म के बंदर ने जब अकेलेपन की शिकायत की तो उसे एक साथी मिल गया। जब एक बछड़ा उनके पास पेशाब कर गया और बूंदें उन पर गिर गईं, तो उन्होंने कहा, "आख़िरकार वह भी हमारे बच्चों की तरह ही है और इसलिए कोई समस्या नहीं है।"

जब आत्माएं मदद मांगने के लिए उनके पास आईं, तो उन्होंने वैसी मदद की जैसी वह किसी भी इंसान के लिए करते हैं। इसलिए, भले ही उन्होंने कभी भी एकता या किसी शास्त्र संबंधी शब्दजाल में नहीं उलझाया, लेकिन उन्होंने इस एकता को जीया। सभी धर्म उनके लिए समान थे, सभी जीवन रूप उनके लिए समान थे, और सभी देवी-देवता भी उनके लिए समान थे।

अस्तित्व की एकता की पुष्टि करते हुए, शिकागो के सुरिंदर जी को गुरुदेव के आध्यात्मिक सहयोगियों में से एक,  गुरु गोबिंद सिंह द्वारा गुरुदेव के पास भेजा गया था!

आगे आ रही है एक अनोखी कहानी!

 

सुरेंदर जीः  ज़्यादातर... मेरे घर पर गुजराती आते हैं, कुछ पंजाबी और कुछ अमेरिकी भी यहां आते हैं। कुछ मुसलमान पाकिस्तान से आते हैं। एक लड़की को बहुत सी समस्याएं थीं और उसने पूछा, क्या मैं यहां नमाज़ पढ़ सकती हूं?  मैंने कहा, 'हां बिल्कुल'। क्योंकि एक बार मैंने अपने सपने में गुरुजी को रसोई में नमाज़ पढ़ते देखा था.

सवालः सपने में?

सुरेंदर जी: नहीं, आप सपना कह सकते हैं, मैंने देखा कि मेरा शरीर बिस्तर पर पड़ा है, और मैं उन्हें रसोई में देख रहा था। गुरुजी नमाज़ पढ़ रहे थे। तो, मैंने गुरुजी से पूछा, 'आप नमाज़ पढ़ रहे थे? उन्होंने कहा, 'लाखों लोग मुझसे इसी तरह प्रार्थना करते हैं'। मैंने कहा गुरुजी आपने उत्तर की ओर मुंह करके प्रार्थना की, मुझे लगता है कि मुसलमान इसे दक्षिण की ओर करते हैं। उन्होंने कहा कि आप जिस दिशा में चाहें प्रार्थना करें, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। फिर अचानक मुझे लगा कि यह अब तक का सबसे अच्छा सपना है। मैंने अपनी आंखों के सामने गुरुजी को नमाज़ पढ़ते देखा।

सवालः क्या आपने कभी… 10वें गुरु को देखा है, आप गुरुदेव से पहले जिनके दर्शन करने जाते  थे?

सुरेंदर जीः  वे गुरु गोबिंद सिंह जी थे।

सवालः जब आपने उसे सपने में देखा तो वह कैसे दिख रहे थे, मेरा मतलब है कि वह घोड़े पर सवार थे...

सुरेंदर जीः आख़िरी बार जब मैंने उन्हें सपने में देखा था तो वह शिव जी की तरह आसन लगाकर बैठे थे। बदन पर बाघ की खाल थी, सिर पर पगड़ी नहीं थी, उनकी एक तरफ कमंडल रखा था, और उनके हाथ में रुद्राक्ष की माला थी, गले में नहीं। मैंने उन्हें पिछली बार इस तरह देखा था और एक दिन गुरुजी ने मुझे मेरे सपने के बारे कहा, “ बेटा, गुरु गोबिंद सिंह शिवजी के रूप थे। ”  ठीक यही बात उन्होंने मुझसे कही थी। 

सवालः क्या वह वैसे ही दिखते थे जैसे चित्र में दिखते हैं?

सुरेंदर जीः नहीं, बिल्कुल नहीं। उनके बाल बंधे हुए थे। उन्होंने पगड़ी नहीं पहनी हुई थी और उन्होंने शिवजी की तरह बाघ की खाल ओढ़ रखी थी। और वह पद्मासन में बैठे थे। सच कहूं तो उनका मुंह पश्चिम की ओर था।

सवालः और वह  नंगे बदन थे, या कुछ पहना हुआ था?

सुरेंदर जीः  वह नंगे बदन थे, हां। बिल्कुल शिव जी की तरह।

 

गुरुदेव के लिए सभी धर्म एक हाथ की पांच उंगलियों के समान थे। जैसी कार्यसिद्धि का हाथ। जिस हाथ ने आपको कामयाबी की ओर बढ़ाया और नाकामयाब होने से बचाया। गुरुदेव में उन सभी संतों का रूप झलकता था, जो अलग-अलग धर्मों से जुड़े हुए थे। 

आज, हम अपने आपको परम आत्मा से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। हो सकता है कि हम परफ़ेक्ट तरीक़े से आगे न बढ़ रहे हों, लेकिन हमारी यात्रा जारी है। आइए, हमारे इस दर्शन के साथ आप भी जुड़ें और एक समृद्ध भविष्य सुनिश्चित करें! 

हम बात श्री रवि त्रेहन के शब्दों में समेट रहे हैं

नज़र आए जलवे ख़ुदा के हर शख़्स में मुझे

नज़र आए जलवे ख़ुदा के हर शख़्स में मुझे

और हर शख़्स नज़र आए मझे ख़ुदा की तरह

और हर शख्स नज़र आए मुझे ख़ुदा की तरह।

 

लोगों की निःस्वार्थ सेवा करते हुए मैं अपने संपर्क में आने वाले हर इंसान में ईश्वर को महसूस कर सकता हूं। और प्रत्येक मनुष्य में मुझे स्वयं ईश्वर का प्रतिबिम्ब देखना चाहिए।