The Guru of Gurus - Audio Biography

कैंप

September 10, 2021 Gurudev: The Guru of Gurus
The Guru of Gurus - Audio Biography
कैंप
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गुरुदेव ने आधा वर्ष कृषि मंत्रालय द्वारा आयोजित मृदा सर्वेक्षण शिविरों में बिताया। जीवित सबसे अमीर आदमी सितारा होटलों में नहीं बल्कि टेंट में और कभी-कभी स्कूल की कक्षाओं में रहता था, कभी-कभी शौचालय के साथ और अक्सर बिना शौचालय के। इन शिविरों ने उनकी शक्तियों को सैकड़ों नहीं बल्कि लाखों लोगों के सामने उजागर किया जो उनकी मदद और आशीर्वाद लेने आए थे। कई भक्त बन गए और कुछ शिष्य। मेरे और अन्य लोगों जैसे लोगों को इन शिविरों में प्रशिक्षित किया गया था। अपने भाग्य की रणनीति की खोज करें। इन शिविरों में हमसे जुड़ें।

गुरुदेव ऑनलाइन गुरुओं के गुरु - महागुरु की ऑडियो बायोग्राफी प्रस्तुत करता है।

यदि इस पॉडकास्ट से संबंधित आपका कोई सवाल है या फिर आपको आध्यात्मिक मार्गदर्शन की आवश्यकता है, तो हमें लिखें - answers@gurudevonline.com

आप गुरुदेव की जिंदगी और उनकी विचारधारा के बारे में इस वेबसाइट पर भी पढ़ सकते हैं - www.gurudevonline.com

गुरुदेव की ज़िंदगी के सबसे खास दौर में से एक दौर वो भी था, जब वो मिट्टी के नमूने इकट्ठा करने और उनका विश्लेषण करने के लिए अलग-अलग जिलों के आधिकारिक दौरे पर जाते थे। ये दौरे इसलिए खास थे, क्योंकि इन कैंपों में वे बहुत-से लोगों का उपचार कर सकते थे, लाखों लोगों की सेवा कर सकते थे और अतीत के अपने शिष्यों को ढूंढ़कर उन्हें ट्रेनिंग दे सकते थे।    

कैंप 

गुरुदेव 1958 में सॉइल सर्वेयर के रूप में कृषि मंत्रालय के तहत पूसा के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में शामिल हुए। तब उनकी उम्र 20 साल थी। उनका काम था भारत के उत्तरी भागों के सुदूर क्षेत्रों में सॉइल सर्वेक्षण करना। इसका मतलब साल में करीब छह महीने घर से दूर रहना था। ये आधिकारिक दौरे उनके लिए स्वाभाविक तौर पर वानप्रस्थ आश्रम बन गए। 

वैदिक संस्कृति के चार आश्रमों या जीवन के चार चरणों में से तीसरा चरण है वानप्रस्थ आश्रम। यह समय जीवन के 50वें साल से लेकर 75वें साल तक माना जाता है। इसमें शहरी जीवन के शोर-शराबे से दूर किसी शांत जगह पर जाकर आध्यात्मिक क्रियाओं पर ध्यान लगाते हुए  अपनी जरूरतों को कम से कम करने का प्रयास किया जाता है।    

कैंप यानी शिविर गुरुदेव के कामकाज का मुख्य हिस्सा थे। इसलिए ये शिविर उनके लिए आध्यात्मिक महत्वाकांक्षा से जुड़ने का साधन बन गए। इन कैंप में उन्होंने अपने आध्यात्मिक सफर में कई खास मुकाम हासिल किए, जिसमें उन्होंने आध्यात्मिक गठबंधन बनाए और सामूहिक उपचार भी किए। विडंबना यह थी कि उन्होंने जिन जगहों पर सामूहिक उपचार किए, वहां बहुत ज्यादा लोग नहीं होते थे। लेकिन इस बारे में हम बाद में बात करेंगे। 

जिस विभाग के लिए गुरुदेव काम करते थे, उसके कामकाज के बारे में उनके एक जूनियर साथी आनंद पाराशर बता रहे हैं।

आनंद जी : हमारा विभाग मृदा सर्वेक्षण से संबंधित था। पहले हमारे विभाग का नाम 'अखिल भारतीय मृदा एवं भू-उपयोग सर्वेक्षण' था जिसे बदलकर 'भारतीय मृदा एवं भू-उपयोग सर्वेक्षण' कर दिया गया है। मूल रूप से इनमें बहुत फ़र्क नहीं है। हमारा काम मिट्टी का सर्वेक्षण करना और उसका सर्वेक्षण नक्शा बनाना था। नक्शे पर हम बताते थे कि यहां किस प्रकार की मिट्टी है। हमने जो अवलोकन किया, उस पर टिप्पणी लिखते थे। हम गड्ढे से मिट्टी के नमूने लेते थे और फिर आगे उनका विश्लेषण करते थे। नतीजों के आधार पर हम उन नमूनों को अलग-अलग करते थे। फिर इसको नक्शे में भी दिखाते थे। पहले हम नक्शे पर गांवों को चिह्नित करते थे, लेकिन बाद में हम इनकी हवाई तस्वीरें भी लेने लगे थे। तो, मुख्य रूप से हमारा काम उन क्षेत्रों का संरक्षण करना था, जहां की मिट्टी गाद के कारण खराब हो गई थी।   

हमारा दौरा अधिकतम 200 दिनों का होता था जिसमें हमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में काम करना पड़ता था। ये वो इलाके थे जो नॉर्थ जोन यानी दिल्ली सेंटर में आते थे। यह फील्ड वर्क था। जब हम खेतों में रहते थे तो नक्शों में निशान लगाने का काम करते थे। दफ्तर में आकर उन पर आगे का काम करना पड़ता था। तो जिस व्यक्ति ने मार्किंग यानी निशान लगाने का काम किया है, वही नक्शे को जांचने का काम भी करता था। केवल वही इस काम को कर सकता था, क्योंकि उसी ने उस इलाके को देखा था। गुरुदेव अपने काम में परफेक्ट थे। उनकी नज़र और दिमाग़ कितना तेज था, मैं उसका बयान नहीं कर सकता। 

कार्यस्थल पर गुरुदेव के सबसे पहले दोस्त थे नागपाल जी। वह उनके साथ इन कैंप्स में जाते थे। जब बैकएंड का काम करने की बारी आती थी तो उन्होंने गुरुदेव के बदले काम किया और उन्हें अपने शिष्यों को ट्रेनिंग देने और आध्यात्मिक अभ्यासों से जुड़ने के लिए वक्त दिया।

आइए नागपाल जी को सुनते हैं। 

नागपाल जीः  जहां तक सरकारी काम की बात है तो वह इसे बहुत गंभीरता से लेते थे और पूरी ईमानदारी से करते थे। अगर किसी जगह पर पहुंचना बहुत मुश्किल हो, जैसे पहाड़ी की चोटी पर जाना हो, तो भी वह वहां जाते थे। वह कहते थे, ‘जब तक मैं खुद देख नहीं लूंगा, ओके नहीं करूंगा। गुरूजी हरेक जगह पर जाते थे और हरेक स्पॉट को जांचते-परखते थे। 

इन शिविरों में क्या होता था, इस बारे में जानने के लिए आइए कुछ अन्य सहकर्मियों से बातचीत करते हैं। सबसे पहले हैं गुरुदेव के शिष्य डॉ शंकर नारायण, जो ऑफिस में उनके सीनियर भी थे।

डॉ शंकर नारायण जी: अपने फील्ड जॉब में वह हिमाचल प्रदेश में बहुत से लोगों से मिलते थे। वह ट्रैकिंग में बहुत अच्छे थे।

सवालः  ट्रैकिंग से आपका क्या मतलब है?

डॉ शंकर नारायण जी: फील्ड को नक्शे में दिखाना होता है। लेकिन इससे पहले उसे ट्रैक करना यानी देखना-परखना होता है। अच्छी ट्रैकिंग के बिना आप इसे ठीक से मैप नहीं कर पाएंगे। मैं भी बहुत अच्छा ट्रैक करता था। वह तो अच्छा करते ही थे। उनका फील्ड वर्क 100%था।

कल्पना कीजिए कि अगर ईसा मसीह को एक फर्नीचर का कारखाना चलाना होता और साथ ही साथ अपनी आध्यात्मिक गतिविधियां भी चलानी होतीं तो वो क्या करते? गुरुदेव भी ऐसी ही स्थिति में थे। उन्हें आधिकारिक दौरों पर दूर दराज के इलाकों की यात्रा करनी होती थी, मिट्टी के नमूने लेकर नक्शे पर चढ़ाना होता था, रिपोर्ट बनानी होती थी और साथ ही अपने शिष्यों का मार्गदर्शन भी करना होता था। कभी-कभी इन कैम्प में आयोजित होने वाले कुछ सार्वजनिक कार्यक्रमों में मरीजों की भीड़ को भी देखना होता था। उनके काम का मुआयना करने सीनियर लोग भी आते थे। क्या दौर था!

उनके पास काम की बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी, लेकिन उन्होंने अपना हर काम बहुत अच्छे ढंग से किया, जिसके लिए हर किसी ने उनकी तारीफ ही की।  

आगे एफ सी शर्मा जी हमें समझाएंगे कि महागुरु का व्यावसायिक जीवन कैसा था।

एफसी शर्मा जी: कभी-कभी मैं एक या दो सप्ताह के लिए नक्शे तैयार करने जाता था,क्योंकि गुरूजी जहां भी सर्वेक्षण के लिए जाते थे उन्हें उन नक्शों पर निशान लगाने होते थे। मिट्टी का नमूना जिस जगह से लिया जाता था, वह नक्शे पर उस जगह का निशान लगा देते थे। मुझे कहीं नहीं जाना पड़ता था लेकिन गुरूजी को 6 महीने के लिए दौरे पर जाना पड़ता था। गर्मियों में वह हिमाचल और जाड़ों में मध्य प्रदेश के दौरे पर रहते थे। दौरे पर, उनके साथ उनकी कार और एक ड्राइवर, एक चपरासी, एक रसोइया और टेंट होता था। अगर उन्हें रहने के लिए जगह नहीं मिलती तो वह तंबू में रहते।

 

इन कैंप्स में रहना आसान नहीं था। कई बार गुरुदेव की टीम को कैंप लगाने के लिए जगह नहीं मिल पाती थी, तो वे खुले मैदान में तंबू लगा लेते थे। कैंप में हमारा जीवन अत्य़ंत साधारण होता था, लेकिन उस दिव्य शक्ति की मौजूदगी में मुझे स्वर्ग का एहसास होता था। यदि हमने वहां अपने कैंप हमेशा के लिए बना दिए होते तो स्वर्ग में रह रही हस्तियां भी धरती पर उतर आतीं। इन्हीं कैंप्स ने मुझे जंगल पानी से परिचित कराया। मेरे जैसे शहरी आदमी के लिए यह एक अनोखा अनुभव था, लेकिन गुरूदेव को इसमें कोई दिक्कत नहीं थी। 

गुरुदेव के ‘पीठ पीछे’ तारीफ करने वालों में उनके एक नास्तिक लेकिन विनम्र बॉस प्रताप सिंह जी भी थे।    

प्रताप जी: वह बड़े मेहनती थे। उन्हें सैटेलाइट तस्वीरों और अन्य तरीको की मदद से ऊपरी इलाके का नक्शा बनाना था। हम 50-50 किलोमीटर की जमीन पर काम करते थे। हर महीने अपने कैंप की जगह बदलते रहते थे। बहुत थकावट भरा काम था। चूंकि जीप हिमाचल की पहाड़ियों पर चढ़ नहीं पाती थी, इसलिए हमें पैदल ही उतनी ऊंचाई तक चढ़ना पड़ता था। वह बहुत स्वस्थ थे। मिट्टी के नमूने इकट्ठा करने के लिए दौड़ते हुए ऊपर चढ़ जाते थे। वह अपने काम में माहिर थे।  

गुरुदेव ने अपने काम के प्रति ईमानदारी, परिवार के प्रति जिम्मेदारी और दूसरों की सेवा को हमेशा तरजीह दी और इसी विचार को आगे भी बढ़ाया। उनकी आध्यात्मिक उद्यमिता में शारीरिक और सूक्ष्म, दोनों तरह की सेवा शामिल थी। वे रोज कई घंटे पाठ करते थे और अपने पाठ के दौरान अपने सूक्ष्म शरीर में लोगों का इलाज करते थे और लोगों को स्वस्थ करते थे। ये वे लोग थे जो उनके द्वारा दुनिया-भर में स्थापित स्थानों पर आते थे। गुरुदेव अपने कैंप में अपना खाली वक्त लोगों का सूक्ष्म उपचार करने में बिताते थे। 

विश्वास नहीं होता? लेकिन फिर भी यह सच है। 

गुरुदेव ने सेवा करने के लिए कैंप की जगहों का इस्तेमाल किया। ये जगहें थीं कथोग, रेणुका, नागपुर, औली, भरतपुर, उत्तराखंड में श्रीनगर, बथरी, लखनऊ और उसके आस-पास के इलाकों के अलावा और भी कई जगह। इसके कारण कई आध्यात्मिक लोग उनसे प्रभावित हुए और इसका नतीजा यह हुआ कि पूरे भारत में कई जगहों पर स्थान खुल गए।

स्थान एक नवीनतम विचार था। जिसमें गुरुदेव ने अपने शिष्यों के घरों में लोगों की सहायता और उपचार के लिए केंद्र स्थापित किए। उनके शिष्यों की आर्थिक परिस्थितियां अलग-अलग थीं  मगर उनकी इस योजना से बिना किसी अतिरिक्त खर्च के लोगों की सेवा करना संभव हो गया था। स्थानों की संख्या बढ़ाते हुए गुरुदेव अपनी सेवा के आधार को शहरों, कस्बों और दूरदराज के गांवों तक ले गए। और आगे चलकर विदेशों में भी उनके स्थान बन गए। 

एक सवाल मन में उठता है - क्या विभिन्न कैंप्स ने स्थानों के लिए रास्ते खोले, या फिर स्थानों ने कैंप्स के लिए रास्ता बनाया? 

गुरुदेव के कई भावी शिष्य जैसे नादौन से संतोष जी, रेणुका से चंद्रमणि वशिष्ठ, ज्वालाजी से शंभू जी, लखनऊ से श्रीवास्तव जी, सुनेत से सुरेश कोहली जी, नागपुर से गिरिपुंजे जी, कोटला से अमीचंद जी, कानपुर से सुरेंद्र जी, पठानकोट से सभरवाल जी, जम्मू के जैन साहब आदि इन कैंप में गुरुदेव से मिले और जीवन पर्यंत स्थान चलाते रहे। इस तरह से महागुरू ने संयोगों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया।

उनके बारे में अनोखी बात यह थी कि वह कुछ लोगों के लिए एक गुरु थे, कई लोगों के लिए देवता थे, और जो आत्माएं मुक्ति पाने के लिए उनके पास आई थीं, उनके वे उद्धारकर्ता थे। 

बहुत सारे आध्यात्मिक गुरु भी उनके पास मदद और आशीर्वाद लेने के लिए आते थे। इन पॉडकास्ट में पहले और बाद में ऐसी कई घटनाएं बताई गई हैं। 

अक्सर, गुरुदेव का कैंप किसी कब्रगाह या जंगल के पास होता था जहां आत्माओं का वास होता है। ये आत्माएं मदद के लिए उनके पास पहुंचती थीं। कैंप में मौजूद रहते समय मुझे जो ज्ञान मिला वह यह था कि शंकर के शिष्य और शिव का स्वरूप होने के कारण गुरुदेव उनकी मदद करने के लिए बाध्य थे। सच कहें तो उन्होंने कुछ आत्माओं को जीवन के जंजाल से मुक्त किया तो कुछ आत्माओं को पुनर्जन्म का वरदान भी दिया। 

गुरुदेव के भरतपुर के पास लगे कैंप में गग्गू जी मौजूद थे। वह वहां के एक अद्भुत नजारे को याद कर रहे हैं।

गग्गू जी: हम भरतपुर गए थे। भरतपुर में उन्होंने एक कब्रिस्तान में अपना कैंप लगाया था। आसपास कोई भी नहीं रहता था। जब वह वहां पहुंचे तो उन्होंने हमें भी वहां लोगों की सेवा करने के लिए बुला लिया। दिन में उनसे मिलने के लिए कुछ लोग आए थे। शाम के समय उन्होंने मुझे बुलाया और दूर दिख रही रोशनी की ओर इशारा किया।"देखो, क्या तुम जंगल में रोशनी देख पा रहे हो?" एक बत्ती जलती तो दूसरी बुझ रही थी। एक के बाद एक बत्तियां जल-बुझ रही थी। फिर उन्होंने मुझे बताया कि ये बिना सिर वाली आकृतियां हैं जिन्हें सैयद कहा जाता है। वे आपस में संवाद कर रहे हैं। ये रोशनी उनके संचार के संकेत हैं लेकिन तुमउनके आस-पास भी मत फटकना। 

गुरूजी के एक भक्त परवेश कपूर ने एक विचित्र कहानी सुनाई।

परवेश कपूर जी: हम एक ऐसी जगह पर गए जहां पर कब्रगाह थी। हमने उनसे पूछा-"गुरूजी, आप यहां क्यों आए हैं? यहां तो कोई नहीं है।" उन्होंने कहा, "पुत्तर क्या तुम लोगों की लाइन लगी हुई देखना चाहते हो?" मैंने कहा, "जैसा आप ठीक समझें।" वह आधे घंटे के लिए समाधि में गए। और उसके बाद लोग वहां आकर पूछने लगे, 'गुरूजी कहां हैं? गुरूजी कहां हैं?’ लोगों की कतारें लग गई थीं। यह सच है। मैंने अपनी आंखों से देखा है।

नागपाल जी के लिए अपने रूममेट यानी गुरुदेव को लाखों लोगों का इलाज करते हुए देखना और वो भी सामूहिक उपचार के तौर पर - एक बड़ा चौंकाने वाला पहलू रहा होगा। वह मध्य प्रदेश के कुरवाई में हुए पहले सार्वजनिक उपचार का किस्सा याद करते हैं।

नागपाल जीः  मुझे नहीं मालूम था कि ऐसा भी कुछ होता है। कुरवाई में जो कुछ हुआ वह हैरान करने वाला था। वहां पर बहुत बड़ी तादाद में बैलगाड़ियां खड़ी थीं। हर बैलगाड़ी में 15-20 लोग बैठे हुए थे। वे सभी इलाज के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। किसी की पारिवारिक समस्या थी, तो किसी को कोई बीमारी थी।

सवालः तो, जब आप उन्हें ऐसा करते हुए देखते थे, तो आपको हैरानी नहीं होती थी कि आख़िर वह ऐसा कैसे कर पाते हैं? क्या आपने उनसे कभी इस बारे में पूछा?

नागपाल जी: कई बार।

सवालः कब?   

नागपाल जी: वह बस हंस देते थे और सवाल को नजरअंदाज कर देते थे। मैं उनसे पूछता था 'यह क्या है? आप इसे कैसे करते हैं?'

मुझे यकीन है कि आप नागपाल जी के प्रति सहानुभूति रखेंगे। अगर अपने आपको उनकी स्थिति में रख कर देखें तो स्थिति का अंदाजा होगा। 

आप नौकरी के दौरान एक दोस्त बनाते हैं; वह आपका रूममेट बन जाता है जो अच्छा तो है लेकिन अजीब भी है। आपको बार-बार मूवी देखने के लिए मजबूर करता है। रात को चादर ओढ़कर कुछ अजीब सी हरकते करता है। अपनी नाक और मुंह से अजीब सी आवाजें निकालता है और अचानक एक दिन असाध्य बीमारियों को ठीक करने लगता है।

बेचारे नागपाल जी इसे कैसे पचा पाते?

नागपाल जी के लिए गुरुदेव किसी गुगली से कम नहीं थे। 

सुरेश कोहली जी हिमाचल प्रदेश के सुनेत के रहने वाले हैं। जब वह नौकरी में आए तो बड़े घमंडी स्वभाव के थे। बाद में वह गुरुदेव के विश्वासपात्र शिष्य बन गए थे।  

सुरेश जी, संतोष जी और शंभू जी, तीनों कथोग के उस स्कूल में शिक्षक थे, जहां गुरुदेव ने कैंप लगाया था। 

महागुरु से मिलना सुरेश कोहली के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। ज़रा उनसे सुनिए!

सवालः  आप उनके संपर्क में कैसे आए?

सुरेश जीः यह संयोग से ही हुआ। मैं हमीरपुर के जौनपुर में था। मार्च के महीने में मेरा तबादला हो गया और मैं कथोग आ गया। वहां थापा नाम का एक तांत्रिक था जिसने मुझे बताया कि इस इलाके में एक बाबू है जिसके हाथ और छाती पर ओम बना है। त्रिशूल भी है। वह एक सभ्य आदमी लगता है। मैंने उससे कहा, "जब तुमने यह देखा तब तुम नशे में होगे। ओम सामान्य लोगों को नहीं दिखता है"। लेकिन उसने कहा कि वह पूरी तरह होश में था। मैं अपनी कक्षा में पढ़ाने के लिए चला गया। लेकिन मेरा ध्यान पढ़ाने में नहीं लग रहा था क्योंकि उस तांत्रिक के शब्द मेरे दिमाग़ में गूंज रहे थे कि उस व्यक्ति के हाथ में एक ओम है, त्रिशूल है और उसकी छाती पर भी ओम बना हुआ है। यह आदमी सामान्य तो नहीं होगा। मैं पढ़ा नहीं पा रहा था। मैंने किताबें फेंक दी और क्लास से बाहर निकल गया। उसी समय मैंने बाहर गेट पर गुरूजी को देखा। मैं उनके पास गया। अपनी शर्ट की बांहें ऊपर चढ़ाए हुए एक शानदार, बहुत सुंदर इंसान मेरे सामने था। थापा जी ने मुझे जो बताया था, मैंने उनसे वही कह दिया। उन्होंने मुझे जवाब दिया, "हां, मेरे हाथ में ओम है।" मैं चकित था, "क्या आपको पूरा यकीन है कि आपके हाथ में ओम है?" उन्होंने कहा हां।" मैंने दिखाने का आग्रह किया। उन्होंने मुझे अपने दाहिने हाथ पर ओम दिखा दिया।

उस समय मेरी रुचि अध्यात्म में थी और मैं चामुंडा मंत्र का जाप करता था। उन्होंने मुझसे कहा कि वह मुझे भगवान से मिलवाएंगे। जब मैंने उनसे पूछा क्या मैंने ठीक सुना, तो उन्होंने हां कहा। वह आदमी पूरे यकीन से अपनी बात कह रहा था। उस समय मैं टॉन्सिल की समस्या से जूझ रहा था।

सवालःकिससे?

सुरेश जीः  टॉन्सिल्स। क्योंकि मुझे कफ की समस्या थी इसलिए मैं दही, दूध नहीं पी सकता था। किसी ने मुझे कहा था कि मुझे ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। मेरी पहली समस्या यह थी कि मैं भगवान से मिलना चाहता था और दूसरी समस्या मेरे टॉन्सिल्स की थी। गुरूजी ने कहा, "चिंता न करें हम इस एक गिलास पानी से आपकी समस्या दूर करेंगे।" मैं एक बार फिर चकित था। उस समय गुरूजी ने किसी से एक गिलास पानी मंगवाया। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह आदमी क्या कह रहा है! मैंने उनसे कहा, देखिए, मेरा मानना है कि पंजाबी लोग बहुत होशियार होते हैं। तो क्या आप भी होशियारी कर रहे हैं?" "नहीं मास्टर जी, ऐसा कुछ नहीं है। मुझ पर भरोसा रखें। मैं आपकी बीमारी दूर कर दूंगा।" मैंने कहा "ठीक है कोई बात नहीं।" उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं अभी-भी चामुंडा का जाप करता हूं और मैंने हां कहा। तब उन्होंने मुझसे कहा कि जब मैं आज रात घर पर जाप करूं, तो मुझे अपने पास एक गिलास पानी रखना होगा और आंखें हमेशा खुली रखनी होंगी। मैं ऐसा करने के लिए तैयार हो गया। मैं आमतौर पर रात के करीब 11 बजे प्रार्थना करता हूं। मेरी अलमारी के एक खंड में मैं उन सभी देवी-देवताओं को रखता हूं जिनकी मैं पूजा करता हूं। वहां बल्ब की रोशनी रहती है। उस रात जब मैं खुली आंखों से जाप कर रहा था, तो मैंने उस अलमारी पर गुरूजी की तस्वीर देखी! 

 सवालः अलमारी?

सुरेश जीः  जी हां। मेरे बल्ब की उस छोटी सी रोशनी में वह तस्वीर मेरे आगे थी। मैं सोचता रहा, “यह व्यक्ति कौन है? मैं तो इनसे पहली बार मिला हूं, और उनके प्रति मेरी कोई भक्ति या भरोसा भी नहीं है। फिर उनकी तस्वीर यहां क्यों है?यह सिलसिला एक घंटे तक चलता रहा और मैं जाप करता रहा।

सवालःतो, मैं जो समझ पा रहा हूं, वह यह है कि जब आप अपनी आंखें खोलकर चामुंडा जाप कर रहे थे, तो आपको उनकी तस्वीर दिखाई दी?

सुरेश जी: केवल आधा ही भाग।

सवालः पर आपकी खुली आंखों के सामने या….

सुरेश जीः  खुली आखों के सामने।पूरी तरह से जागते हुए। ऐसा एक घंटे तक चला। तस्वीर मेरी आंखों के सामने थी और मैं जाप भी कर रहा था। और, ऐसा 7 रातों तक चलता रहा। आठवीं रात को उनकी तस्वीर नजर नहीं आई। मेरी आंखें खुली हुई थीं। मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उनकी छवि मेरे सामने नहीं आई। सुबह जब मैं उनके पास गया, तो मैंने उनसे पूछा कि क्या हुआ,"आजक्या हुआ?"उनका जवाब था, "अगर आप मुझे फिर से देखें तो समझें कि भगवान से मुलाकात हो गई, मास्टरजी।"

मैं उत्तेजित था। सिर से पांव तक कांप रहा था। मैं जिस भगवान को खोज रहा था, वे मुझे मिल गए थे। 

कथोग एक महत्त्वपूर्ण जगह है गुरुदेव के लिए और उनके शिष्यों के लिए जो उसके आसपास के गांवों से आते थे। राजी शर्मा इसे महागुरु की आध्यात्मिक यात्रा को बहुत ऊपर ले जाने वाला बिंदु बताते हैं।

सुरेश जी कथोग की कहानी जारी रखते हैं।

सुरेश जीः कथोग में लाखों लोग आते थे। यह एक बंजर जगह थी। उन दिनों गुरुदेव लोगों के हाथों में स्टील का कड़ा पहनाते थे। इतने लोग आते थे कि कड़े खत्म होने लगते थे। गुरुदेव लोगों का इलाज लौंग, इलायची और काली मिर्च से करते थे। लौंग, इलायची और काली मिर्च भी कम पड़ने लगती थी। कई लोगों ने वहां पर उनके चमत्कारों को देखा था। यह उनका पहला समागम था। किसी ने हमारे बारे में शिकायत कर दी कि एक बाबा आया हुआ है और सभी शिक्षक सेवा करने में व्यस्त हैं। स्कूल खाली हो गए हैं। शिकायत पर जांच करने के लिए जब शिक्षा विभाग के डिप्टी डायरेक्टर स्कूल पहुंचे तो उन्हें शिकायत सही मिली। क्लास में पढ़ाई नहीं हो रही थी। लोग क्लासरूम में इकट्ठा थे और वहां सेवा चल रही थी। उन्होंने मुझे बाहर बुलाया और पूछा, "मिस्टर कोहली, क्या चल रहा है। तो, फिर मैंने कहा, "यह स्थान है"। मैंने उन्हें गुरूजी से मिलवाया और उनकी समस्याओं का समाधान किया गया। वह वापस अधिकारियों के पास गए और उन्हें बताया कि सब कुछ ठीक है, और स्कूल सामान्य रूप से चल रहा था। यहां तक कि वह भी उनके भक्त बन गए। 

सवालःकथोग का कैंप कैसा था? कितने लोग आते थे?

सुरेश जी: लाखों लोग। यह बहुत बड़ा कैंप था। वैसे रेणुका में सबसे बड़ा कैंप लगा था, लेकिन यह कैंप भी रेणुका के कैंप से कम नहीं था।

कुछ बातें नादौन के संतोष जी के साथ। वह भी गुरुदेव से कथोग में मिले थे।

संतोष जीः1976के मई या जून  का समय था।  मेरी तबीयत ठीक नहीं थी। किसी ने मुझे बताया कि एक इंजीनियर आया है और वह लोगों को लौंग, इलाइची और जल देकर ठीक करता है। जब मैं उनसे मिलने गया, तो गुरूजी ने मुझे उनके हाथ पर ओम और त्रिशूल के चिन्ह दिखाए।मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा कि मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे उनका शिष्य बनने का मौका मिल रहा है। 3 दिन बाद गुरूजी ने मुझे कड़ा, लौंग, इलाइची और जल लेने के लिए एक बोतल लेकर अपने पास आने के लिए कहा। जब मैं उनके पास गया, तो उन्होंने कहा, "बेटा, आओ हम तुम्हारा कल्याण करेंगे"। उस समय गुरूजी अपने शिष्यों को तांबे के कड़े देते थे। उन्होंने मुझे भी तांबे का कड़ा दिया और जाप करने के लिए एक मंत्र दिया।

कथोग में इलाज करवाने के लिए बहुत लोग आते थे। मैं एक घटना बताना चाहूंगा जो मेरी मौजूदगी में हुई थी। प्रधान जी नाम का एक व्यक्ति 5 से 6 किलोमीटर दूर रहता था।  उसके भाई की तबीयत खराब थी। वह गुरूजी से मिलने आया। उस समय टैक्सी आदि की कोई सुविधा नहीं थी। वह जीप लेकर आया था ताकि अपने भाई को चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल ले जा सके। गुरूजी ने उससे कहा, "यदि मैं तुम्हारे भाई को यहीं ठीक कर दूं तो?" उसने जवाब दिया "आप मेरे साथ मजाक क्यों कर रहे हैं?" गुरूजी ने एक गिलास में जल लिया और प्रधान जी को दे दिया। उन्होंने उसके पेट पर हाथ रखा। उसकेभाई को पेट से संबंधित बीमारी थी। गुरूजी ने कहा "अब तुम घर जा सकते हो, तुम्हारा भाई ठीक हो जाएगा।" वह घर गया और अपने भाई को देखा। हम भी उसके साथ शाम को उसे देखने के लिए गए। तब प्रधान जी ने कहा कि उसका भाई गहरी नींद में सो रहा है और जब से गुरूजी ने उसे एक गिलास जल पिलाया है, तब से वह अच्छा महसूस कर रहा है। यह गुरूजी द्वारा किया गया चमत्कार था और इसे देखकर कई लोग गुरूजी से मिलने आने लगे। उस समय मैं वहां था।ज्वाला जी के शंभू जी और रिटायर्ड प्रिंसिपल सुरेश कोहली उस समय एक ही स्कूल में काम करते थे। गुरूजी ने हम तीनों को सेवा करने का मौका दिया। हमें पता नहीं था कि सेवा कैसे की जाती है। गुरूजी ने हमें एक गिलास जल दिया और कहा, "आपको बस अपना हाथ शरीर के उस हिस्से पर रखना है जिसे लोग ठीक करवाना चाहते हैं और बाकी मैं संभाल लूंगा।" हम चकित थे क्योंकि हमें नहीं पता था कि क्या करना है और कैसे करना है। लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से जैसा कि गुरूजी ने कहा था, हमने उनके आदेशों का पालन किया और लोगों को ठीक किया। हम जिस व्यक्ति पर हाथ रख देते थे, उसकी सारी समस्याएं दूर हो जाती थीं और वे मुस्कुराते हुए वहां से लौटते थे। 

कैंप में आने वाले अधिकांश लोगों का मक़सद अपनी पीड़ा का इलाज पाना था। लेकिन कथोग के संतोष जी, सुरेश जी और शंभू जी के लिए यह सेवा थी। 

संतोष जी, जो एक बॉडी बिल्डर और पीटी टीचर थे, महागुरु से पूरी तरह से प्रभावित थे। उन्होंने गुरुदेव के अनेक चमत्कार देखे हैं, उन्हीं में से एक के बारे में वह यहां बता रहे हैं।

संतोष जीः गुरूजी के हाथों से ठीक होने के लिए कई लोग कथोग पहुंचते थे। उस दौरान मैंने एक घटना देखी। एक बूढ़ा आदमी गुरूजी के पास आया। वह दो लाठियों का सहारा लेकर चल रहा था। उसकी पीठ भी झुकी हुई थी। गुरूजी ने उसे अपने पास बुलाया और पूछा, "बाबा, अगर मैं तुम्हारी पीठ ठीक कर दूं तो कैसा रहेगा?" तो, बाबा जी ने कहा, "यह समस्या तो अब मेरे मरने के साथ जाएगी। मेरी उम्र नहीं है कि अब मैं इससे मुक्ति पाऊं।" गुरूजी ने उसे अंदर बुलाया और एक गिलास में जल दिया। जल की कुछ बूँदें उनके ऊपर छिड़कीं और बाकी उसे पीने को कहा। जब उसने जल पी लिया तब गुरुदेव ने अपना एक हाथ उनकी पीठ पर रखा और एक हाथ उनकी छाती पर रखकर उन्हें सीधा खड़ा होने में मदद की। धीरे-धीरे वह बूढ़ा सीधा खड़ा हो गया। गुरूजी ने बूढ़े आदमी से कहा "लाठी फेंको और चलना शुरू करो।" गिरने के डर से बूढ़ा लाठियां छोड़ना नहीं चाहता था। गुरूजी ने उससे उसकी लाठियां ले लीं और किनारे रख दीं। फिर उसे चलने में मदद की। और फिर गुरूजी ने उससे कहा, "बाबा, अब आप इन लाठियों को अपने कंधे पर रख लो और घर जाओ।" बाबा ने ठीक वैसा ही किया जैसा गुरूजी ने कहा। वह चलते हुए घर चला गया। इस बूढ़े आदमी को सीधा चलता हुआ देखकर सब हैरान रह गए। लोग सोच रहे थे कि वह कोई भूत तो नहीं है। 

शंभू जी के बड़े बेटे पप्पू पहाड़िया ने कथोग में अपनी नन्ही आंखों से चमत्कार देखा था। आगे जाकर वह एक प्रभावशाली युवक और उत्साही भक्त बन गए। वह अपनी यादें साझा कर रहे हैं।

पप्पू जीःजब गुरूजी पहली बार हिमाचल के शक्तिपीठ क्षेत्र में आएतो उन्होंने कथोग में कैंप लगाया। यह ज्वालामुखी से तीन किलोमीटर दूर है। मेरे पिता गुरूजी के कैंप के सामने वाले स्कूल में टीचर थे। यहीं से हमने गुरूजी के बारे में जाना। उस समय कोई नहीं जानता था कि वह गुरूजी हैं। वह एक छोटी सी जगह थी। इसी वजह से हम गुरूजी से मिलने लगे। गुरूजी के स्टाफ के लोग उन्हें "गुरूजी" कहते थे। वे सभी इस बात से आश्चर्यचकित थे कि कैंप के लोग इस सुन्दर, माडर्न दिखने वाले व्यक्ति को गुरूजी क्यों कह रहे थे। पिताजी और तीन-चार टीचर्स ने मिलकर पता लगाना शुरू कर दिया कि क्या वास्तव में वह गुरूजी हैं। धीरे-धीरे गुरूजी उस जगह पर चमत्कार दिखाने लगे। अगर कोई उनके पास पेट की समस्या लेकर आता था, तो वह उसे अपने पेट पर हाथ रखने और प्रार्थना करने के लिए कहते थे। बीमार आदमी जल्दी ही ठीक हो जाता था।

वास्तव में जब गुरुदेव कथोग में अविश्वसनीय चमत्कार कर रहे थे, तो हरियाणा में रह रहा उनका परिवार उनके इस आध्यात्मिक बदलाव से पूरी तरह अनजान था। आइए गुरुदेव की बहन के साथ बातचीत करने के लिए हरियाणा चलें।

गुरुदेव की बहन: उनका कैंप कथोग में था। मैंने मेरी कक्षा में पढ़ रहे दिलबाग से पूछा, "ज्वालाजी से कथोग कितनी दूर है?"उसने कहा, "पास ही है। अभी तो वहां एक ओम बाबा आए हुए हैं। "मैंने उससे पूछा, "यह ओम बाबा कौन हैं?" हम जानते थे कि मेरा भाई एक रिसर्च ऑफिसर है। हम यह नहीं जानते थे कि वह गुरू है। मैंने कहा, मेरा भाई वहां है। वह एक रिसर्च ऑफिसर है और वहां पर उनका मिट्टी संरक्षण कैंप लगा हुआ है।" फिर उसने कहा, "लेकिन  वहां तो एक ओम बाबा ठहरे हुए हैं। कथोग में उनसे मिलने के लिए भारी भीड़ इकट्ठा होती है।" बाद में पापाजी (गुरूजी) आए और मैंने उनसे पूछा "पापाजी, वह ओम बाबा कौन हैं जो कथोग में ठहरे हैं?" उन्होंने मुझसे पूछा, "तुमको इसके बारे में किसने बताया?"मैंने कहा "मेरी क्लास में एक लड़का है जिसने मुझे बताया कि एक ओम बाबा हैं। उनका चेहरा किसी ने नहीं देखा लेकिन उनसे मिलने आने वालों की भारी भीड़ है. " फिर गुरूजी ने मुझे सबकुछ बता दिया। उन्होंने कहा, "एक सरपंच था जो मुझसे मिलने आया था। उसे पेट की समस्या थी। मैंने अपने भीतर यह आवाज सुनी, "तुम्हारे पास इस आदमी को ठीक करने की क्षमता है"। यह सुनकर मैंने जल बनाया। इससे उन्हें अच्छा लगा। मुझे नहीं पता कि उनका वह दर्द कैंसर का था या क्या था, लेकिन वह ठीक हो गया था।"तो इस तरह से उनसे मिलने आने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी। 

उनकी बहन के लिए यह किसी गुगली से कम नहीं था और वह क्लीन बोल्ड हो गई थीं।

गुरुदेव को कथोग वाले बाबा, ओम वाले बाबा, जैसे बहुत सी स्थानीय उपाधियों से नवाजा गया था। क्योंकि लोगों ने उनके हाथों पर ओम देखा था और इसके महत्व को भी समझा था।

हिमाचल को देवभूमि ऐसे ही नहीं कहा जाता है। हिमाचल ने दुनिया को कई संत दिए हैं जिनकी आध्यात्मिक शक्ति और चमत्कारों को दुनिया मानती है।

लेकिन हर समाधान के साथ कोई समस्या भी चली आती है। कथोग के पास स्थित ज्वालाजी मंदिर में आने वाले दर्शनार्थी गुरुदेव के कैंप की ओर मुड़ने लगे। 

राजी शर्मा हमें बताते हैं कि उसके बाद क्या हुआ।

राजी शर्मा जी:  मुझे खड़ाऊ की घटना याद आती है। यह घटना मेरे कथोग से निकलने के बाद हुई। जाहिर है, ज्वालाजी के पंडित बहुत खुश नहीं थे क्योंकि उन्होंने देखा कि अचानक मंदिर की बजाय गुरूजी की ओर लोगों का रुझान बढ़ गया था। गुरूजी की आध्यात्मिक शक्ति को देखने के लिए उन्होंने उन्हें मंदिर में आमंत्रित किया। वे उन्हें नीचे तहखाने में ले गए जहां खड़ाऊ का एक जोड़ा रखा हुआ था। मुझे नहीं पता कि वे खड़ाऊ किसकी थीं लेकिन वे किसी तांत्रिक या सिद्धपुरुष की हो सकती थीं। गुरूजी से उन्हें पहनकर कुछ कदम चलने के लिए कहा गया। उन्होंने खड़ाऊ पहनी और तीन कदम चले भी। तब उन लोगों को समझ में आ गया कि जो व्यक्ति इन खड़ाऊ को पहनकर चल पा रहा है वह कोई महान व्यक्ति है। उसमें आध्यात्मिक शक्ति है। 

खडाऊ का उद्देश्य अध्यात्म का ढोंग करने वालों का पर्दाफाश करना था। जो इस परीक्षा में पास नहीं होता था, पुजारी उन्हें सजा देते थे। शायद यह अफवाह हो लेकिन ये कहानी मुझे 1980 के दशक में बताई गई थी।

हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के शहर रेणुका में लगाए गए कैंप के दौरान भी ऐसी ही हलचल हुई थी। रेणुका में देवी रेणुका और सप्तऋषि जमदग्नि के अमर पुत्र परशुराम जी का साम्राज्य है।

आइए कथोग से रेणुका की ओर चलें। दोनों हिमाचल प्रदेश में हैं, लेकिन दोनों के बीच 320 किलोमीटर की दूरी है। 

एक बातचीत में बिट्टू जी ने इस कैंप में गुरूदेव के साथ बिताए गए समय की यादें ताजा कीं।

बिट्टू जीः 1979 में  गुरुजी रेणुका के आधिकारिक दौरे पर गए उन्होंने स्थानीय लोगों से पूछा कि क्या कोई और जगह है जहां वह रह सकते हैं। स्थानीय लोगों ने उन्हें श्री वशिष्ठ का पता बताया। उनका घर खाली था। वह वहां रह सकते थे बशर्ते इजाज़त मिल जाए। गुरुजी ने वशिष्ठ से बात की। उन्होंने कहा कि वह सुनसान जगह है। वह किसी अनहोनी के लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। गुरुजी ने उस जगह को देखा और पसंद कर लिया। हमने वहां कैंप लगा लिया। कुछ दिन रहने के बाद वहां का पानी खत्म हो गया। हम लोग पानी की तलाश में निकले। गुरूजी आगे-आगे चल रहे थे। उनके पीछे मैं और रंजीत नाम का एक दिहाड़ी मजदूर था। जहां हमने कैंप बनाया था उसके पास एक बारिश के पानी वाला नाल बह रहा था। जब गुरूजी नीचे पहुंचे, चमत्कार हो गया। पानी हमारे पीछे-पीछे आने लगा। हमने उस पानी का इस्तेमाल किया। सारी जगह सूखी पड़ी थी, लेकिन गुरुजी चलते रहे और बगीचा हरा-भरा होने लगा। जहां पर हमारा कैंप था उसके पास में एक छोटा सा मंदिर था। उसमें शिवलिंग स्थापित था। उस शिवलिंग की साफ-सफाई नहीं की गई थी। मंदिर का रखरखाव नहीं था। मकड़ी के जाले वगैरह लगे हुए थे। कुछ दिनों बाद मैंने गुरूजी से पूछा कि क्या मैं उस मंदिर की सफाई कर सकता हूं। गुरूजी ने मुझे पैसे दिए और मुझे बाजार जाकर सफेद रंग लाने को कहा। उन्होंने यह भी कहा हर सुबह मुझे शिवलिंग पर जल चढ़ाना है और एक अगरबत्ती भी जलानी है। उसके बाद मैं वहां दीया बत्ती करने लगा। लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया था कि मेरे बाद गुरूजी भी वहां अगरबत्ती जलाते थे। गुरूजी के निर्देशानुसार हम प्रातः 6 बजे पूजा करते थे। जब मैं शिवलिंग की पूजा करता था तो गुरूजी मेरे पीछे खड़े रहते थे। गुरूजी के शरीर छोड़ने के बाद उस शिवलिंग पर कई लोगों ने उनके दर्शन किए हैं।

सवालः जिन श्री वशिष्ठ जी की बात आपने बताई और आपने कहा कि उन्होंने दस साल तक गुरूजी जैसी ही आकृति को देखा है। क्या आप इसके बारे में हमें बताएंगे ?

बिट्टू जीः  श्री वशिष्ठ पहले गुरूजी को मिट्टी का सर्वेक्षण करने वाला ही मानते थे। एक दिनगुरूजी किसी सरकारी काम से दिल्ली आए और मैं उसी कैंप में था। एक सुबहश्री वशिष्ठ उसी शिवलिंग वाले मंदिर में पूजा करने आए। चाय पीते हुए उन्होंने मुझसे सवाल किया कि क्या शर्मा जी चश्मा पहनते हैं ?वशिष्ठ जी गुरूजी को शर्माजी कहते थे। मैंने जवाब दिया किनहीं,शर्माजी चश्मा नहीं लगाते, लेकिन कभी-कभी गॉगल्स पहन लेते हैं। इसके बाद वह चले गये। शाम को जब गुरुजी वापस आए, तो मैंने उनसे कहा कि वशिष्ठ जी आए थे और ऐसा सवाल पूछ रहे थे। गुरूजी हंसने लगे। अगले दिन वशिष्ठ फिर आए। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या शर्माजी लौट आए हैं। वह उनसे मिलना चाहते थे। मैंने गुरूजी से कहा कि वशिष्ठ साहब आए हैं तो गुरूजी ने उन्हें चाय पिलाने के लिए कहा और कहा कि वे शेव करने के बाद उनसे मिलेंगे। जब गुरूजी वशिष्ठ जी से मिलने आए तो उन्होंने अपना सवाल दोहराया कि वह चश्मा पहनते हैं या नहीं। गुरूजी ने कहा, "नहीं, मैं चश्मा नहीं पहनता, लेकिन इन बच्चों ने मुझे गॉगल्स खरीद कर दिए हैं,इसलिए मैं जीप में जाता हूं, तो कभी-कभी उसे लगा लेता हूं।" वशिष्ठ जी ने फिर वही सवाल किया। अबकी गुरूजी ने जवाब दिया कि वह अभी जवान हैं और उन्हें नजर के चश्मे की जरूरत नहीं है। तब वशिष्ठ अध्यात्म पर बात करते रहे। 10-15 मिनट के बाद गुरूजी ने उनसे कहा, "वशिष्ठ साहब आइए,हम भी आपको कुछ दिखाएंगे।" गुरुजी ने मुझे पानी लाने के लिए कहा और हाथ धोए। मैंने गुरुजी को अपना ओम कई लोगों को दिखाते देखा है, लेकिन जब उन्होंने वशिष्ठ साहब को दिखाया तो ओम बहुत चमक रहा था।मैंने इतना चमकीला ओम पहले कभी नहीं देखा था। ओम देखते ही वशिष्ठ जी गुरूजी के कदमों में गिर पड़े। बाद में, वशिष्ठ जी ने बताया किपिछले 10 वर्षों से जब भी वे पूजा स्थान में पाठ के लिए बैठते थे तो उन्हें गुरुजी के समान एक व्यक्ति सामने की दीवार पर चश्मा पहने हुए दिखाईदेता था। उससे उनके ध्यान में विघ्न पड़ता था। वह सोचते था कि वह व्यक्ति कौन है। गुरूजी ने कहा, "बेटा,मैं यहां 1979 में आया हूं। मुझे 1969 में यहां आना चाहिए था। आप 10 साल से मेरी राह देख रहे हैं।"

गुरुदेव ने 1980 में रेणुका में एक स्थान खोला जिसके संचालक चंद्रमणि वशिष्ठ थे और परशुराम जी इसके मुख्य संरक्षक थे।

चंद्रमणि वशिष्ठ ने स्थान का प्रबंधन करने के लिए दिनेश जी को अपना उत्तराधिकारी चुना और दुनिया छोड़ने से पहले उन्हें बागडोर सौंप दी। दिनेश जी हमें उस जगह के आध्यात्मिक इतिहास की जानकारी देते हैं।

सवाल:  इस स्थान का परशुरामजी से क्या संबंध है?

दिनेश जीः यहां की यह भूमि परशुरामजी की है क्योंकि यह उनका जन्मस्थान है और उनका ध्यान स्थान भी। वह इस जमीन के कोने-कोने में रहते हैं। आपने सुना होगा कि गुरूजी ने पहले कहा था कि कोई भी पत्थर उठा लो तो उसमें 'ओम'दिखाई देगा। अभी भी यदि आप कोई पत्थर उठाते हैं तो आप उस पर ओम देख पाएंगे। पृथ्वी 1000 वर्षों से अस्तित्व में है। परशुराम यहां हैं और उन्होंने कई जन्म लिए हैं। यह परशुराम जी का जन्मस्थान भी है। माता रेणुका उनकी जननी हैं।वह झील उनकी स्थली है। माना जाता है कि वह वहां सशरीर रहती हैं। परशुराम जी अमर हैं और जिस्मानी रूप में मौजूद हैं। मैं क्या कहना चाहता हूं आप समझ रहे हैं न?

सवालः जिस्मानी रूप में?

दिनेश जीः हां, जिस्मानी रूप में वह कहीं भी और कभी भी आ सकते हैं। वह बूढ़े नहीं होते। उन्हें कोई भी उसी रूप में देख सकता है।

सवालः वह कैसे दिखते हैं?

दिनेश जीः वह बहुत युवा दिखते हैं। छोटी दाढ़ी और मूंछ और बाल जूड़े में बंधे हुए हैं।

गुरुदेव ने कैम्प में ही कई आध्यात्मिक गठबंधन बनाये, चाहे वो परशुराम जी और उनकी माता रेणुका देवी के साथ हों, हिमाचल प्रदेश के अनेक देवी-देवताओं से हों या फिर बुड्ढे बाबा या औघड़ से! इनमें ऐसे कई महात्मा भी शामिल हैं, जिनके बारे में अभी पता लगाया जाना बाकी है। 

जब गुरुदेव पहली बार रेणुका पहुंचे, तो उन्होंने अपने सभी शिष्यों को हिदायत दी थी कि वे उन्हें गुरू कहकर संबोधित न करें। वह चाहते थे कि उनकी पहचान तब तक गुप्त रहे जब तक कि वह परशुराम जी के साथ एक व्यावहारिक संबंध स्थापित नहीं कर लेते। सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन कई आध्यात्मिक हस्तियां अन्य आध्यात्मिक हस्तियों को स्वीकार करने या मान्यता देने से पहले उनकी परीक्षा लेते हैं!

बिट्टू जी रेणुका का एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं जिसमें गुरूदेव की सबसे बड़ी बेटी रेणु शामिल हैं, सुनिए!

बिट्टू जीः जब गुरुदेव रेणुका के कैंप में थे उस दौरान उनकी बेटी रेणु को मीजल्स निकल आए थे। उसकी हालत खराब हो गई और वह मृत्युशैया पर थी। उस समय उसे अपने डैडी यानी कि गुरूजी से मिलने की चाहत हुई। गुरूजी रेणुका में थे। माताजी सुभाष और पाल जी के साथ रेणु को रेणुका ले गईं। जब वे पहुंचे, उस समय गुरूजी फील्ड में काम कर रहे थे। जब वह लौटे तो देखा कि कैंप में उनका इंतज़ार हो रहा था। माताजी और रेणु को वहां देख वह बहुत भड़क गए। माताजी ने उनसे कहा, "मैं अपने आप नहीं आई, आपकी बेटी आपसे मिलना चाहती थी।" गुरुदेव ने कहा, "अगर उसके भाग्य में मरना ही होगा तो मर जाने दो"। फिर उन्होंने उन्हें उसी समय, शाम करीब 5 बजे वापस लौटने के लिए कहा। उन दिनों में शाम 6 बजे ही अंधेरा हो जाता था क्योंकि रेणुका में रात जल्दी हो जाती थी। मैंने हिम्मत जुटाई और गुरूजी से पूछा कि क्या वे लोग यहां रह सकते, जिस पर उन्होंने कहा, "वे यहां नहीं रहेंगे।" फिर  मैंने पूछा कि क्या वे बायरी के स्थान में ठहर सकते हैं। उन्होंने कहा,"वे जहां चाहें वहां रह सकते हैं। वे यहां कुछ नहीं खाएंगे। माताजी ने उन्हें जवाब दिया, "मैं यहां का एक घूंट पानी भी नहीं पीऊंगी क्योंकि मैं अपने साथ भोजन और पानी लेकर चली हूं। आप चाहें तो आप भी यह खाना खा सकते हैं।" उन्होंने सबको एक रात के लिए वहां रुकने की इजाज़त दे दी। उन्होंने कहा, "इससे पहले कि मैं अपना पाठ करने के लिए जागूं, आप सभी को इस स्थान से चले जाना होगा।" बाद में गुरुजी ने बताया कि परशुरामजी उनकी परीक्षा ले रहे हैं।

सवालः मतलब, उनकी परीक्षा ली जा रही थी?

बिट्टू जी:  हां।

सवालः इस बात की परीक्षा ली जा रही थी कि कहीं वह भावनाओं में उलझे हुए तो नही हैं। 

बिट्टू जी:  हां। उनकी बेटी मरने वाली थी... माताजी रेणु को गुड़गांव से अपने हाथों में उठाकर लाई थीं।

परीक्षा पास करने के बाद गुरुदेव को अमर परशुराम ने सहयोगी के रूप में स्वीकार कर लिया और एक गठबंधन बना, जो आज भी बना हुआ है।

इसके तुरंत बाद, गुरुदेव ने रेणुका में सेवा शुरू की और कुछ शिष्यों को उस सेवा में शामिल होने के लिए कहा। गुरुदेव ने उन्हें बताया कि उनकी आवाज पहाड़ों के पार बहुत दूर तक पहुंच गई है, और उन्हें उम्मीद है कि इस छोटे से गांव में बहुत सारे लोग आएंगे। निश्चय ही, उसके बाद के दिनों में दूर-दूर से लोग वहां आए। हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और राजस्थान की बसें हर कुछ घंटों में कैंप के पास लोगों को उतारती थीं। वास्तव में, हरियाणा और पंजाब रोडवेज ने इतनी बड़ी मांग को पूरा करने के लिए कुछ बसों को रेणुका की ओर मोड़ दिया।

जैसे ही रेणुका में हुए चमत्कारों की बात फैली, हिमाचल सरकार ने अपने कुछ अधिकारियों को जांच के लिए वहां भेजा। उन्होंने वहां वितरित किए जाने वाले जल का एक नमूना लिया और प्रयोगशाला में भेज दिया। लेकिन जांच में तो यही पाया गया कि वो जल पूरी तरह शुद्ध है!

रेणुका का कैंप गुरुदेव द्वारा किए गए सामूहिक उपचार का सबसे बड़ा स्थल बना। ऐसा शायद ही किसी और संत का होगा। 

रेणुका के मेरे अपने अनुभव ही एक किताब लिखने के लिए काफी हैं। 

मैं देवी रेणुका के शाही व्यक्तित्व और दिव्य सुंदरता को नहीं भूल सकता। कुछ अजीब परिस्थितियों की वजह से मैंने उनसे सुरक्षा मांगी थी, जो मुझे तुरंत ही मिल गई। मेरे ज़ेहन में, देवी रेणुका सफेद वस्त्र पहने अपनी पूरी सौम्यता और महिमा के साथ प्रकट हुईं और छड़ी या पंख जैसी किसी चीज से मुझे छुआ और फिर तुरंत ही मुझे अत्यंत आनंद का अनुभव हुआ। 

आइए मैं रेणुका की मेरी यात्रा के दौरान घटी घटनाओं के बारे में बताता हूं। 

गुरुदेव द्वारा स्थापित स्थान पर जब भी चंद्रमणि वशिष्ठ ने शिवलिंग पर जल चढ़ाया, उन्हें ओम की आकृति दिखती थी। कुछ अन्य लोगों के साथ जब मैं रेणुका की यात्रा पर गया, तो मैंने भी इसे देखा। लेकिन मेरे सह-यात्रियों ने उस पर गुरुदेव की छवि भी देखी, जिसे मैं नहीं देख पाया। मुझे निराशा हुई, लेकिन मैं सिर्फ इस वजह से इस पर विश्वास करने को तैयार नहीं था कि दूसरों ने इसे देख लिया था। बस, मैं असहमति जताते हुए वहां से चला गया। 

थोड़ी देर बाद हम रेणुका के एक अन्य शिष्य करमचंद के घर भोजन के लिए रुके। हम जमीन पर बैठे थे और हमें पत्तलों में भोजन परोसा जा रहा था। पत्तल नीचे रखने से पहले मैंने जमीन को साफ किया। और भोजन के बाद जब मैंने अपनी पत्तल उठाई, तो नीचे जमीन पर ओम निशान जड़ा हुआ देखकर मैं चौंक गया। मैंने सोचा कि अपने मेजबान को यह बात न बताना ही अक्लमंदी है। मुझे लगा कि यह मेरे लिए एक संकेत था और फिर मैं एक बार और शिवलिंग के दर्शन करने के लिए भागा। 

वशिष्ठ जी तब तक वहां से निकल चुके थे, इसलिए मैंने अहाते की दीवार से छलांग लगाई और शिवलिंग तक पहुंच गया। वहां शिवलिंग से कहा कि मुझे वह दिखाओ जो मैं पहले नहीं देख पाया था। मैंने आगे जो देखा वह अद्भुत था।

ओम की जगह एक चेहरे की रूपरेखा प्रकट हुई। मैं भरोसा नहीं कर पा रहा था, लेकिन वह वहीं बनी रही। शिवलिंग को अपने आपको और अपनी शक्ति को प्रदर्शित करने के लिए मेरे विश्वास की जरूरत नहीं थी, लेकिन यह घटना इस बात का संकेत थी कि यह स्थान आध्यात्मिक रूप से कितना आवेशित था।

दो या तीन दशकों के बाद मैं हाल ही में शिष्यों और भक्तों के समूह के साथ रेणुका गया हूं। मैं चाहता था कि वे वहां की शक्ति के समक्ष सिर झुका सकें। उनमें से अधिकांश ने शिवलिंग के आसपास धूप जलाने के बाद ओम को प्रकट होते देखा।

गुरुदेव के अधिकांश भक्तों को रेणुका अवश्य जाना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि गुरुदेव और उनके कुछ शिष्यों ने पिछले जन्म में रेणुका की पहाड़ियों में और उसके आसपास ध्यान किया था और कहा जाता है कि उनकी समाधि अभी भी वहां हो सकती है।

ज़रा सोचिए – अगर परशुराम जी जैसे महान देव, सेवा के लिए स्थान की स्थापना करने और इसे चलाने में सहायता करने को तरजीह दे सकते हैं, तो फिर निःस्वार्थ सेवा के विचार को अपनाकर इसका अभ्यास करने में ही बुद्धिमानी होगी।

यदि आपकी जीवनशैली में कैंप के लिए बहुत अधिक समय देना शामिल नहीं हो सकता है, तो  आप वह कर सकते हैं जो मैं करता हूं - अपने दिमाग में एक कैंप बनाएं। अपने जीवन के ऑपरेशन मैनेजमेंट से जान छुड़ाकर अपने दिमाग में बनी पहाड़ियों की ओर जाएं। दिन-प्रतिदिन के सामान्य जीवन, सामान्य जुड़ाव, पारिवारिक और सामाजिक संबंधों से नाता तोड़ें। अध्यात्मवाद सीखने और उसका अभ्यास करने के लिए खुद को समय दें। अपने मन को अपने परमात्मा से जोड़ें।

दिन में एक घंटे के लिए आप अपने बिस्तर को अपना कैंप बनाएं। सुबह या शाम अपने कैंप में टहलें।

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