The Guru of Gurus - Audio Biography

कार्यस्थल

September 06, 2021
The Guru of Gurus - Audio Biography
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एक साधारण नौकरी, एक साधारण ऑफिस, एक साधारण तनख्वाह लेकिन एक असाधारण ज़िंदगी...इस‌ पॉडकास्ट में गुरुदेव के दफ्तर और काम की जिंदगी का लेखा-जोखा दिया जा रहा है

एक साधारण नौकरी, एक साधारण ऑफिस, एक साधारण तनख्वाह लेकिन एक असाधारण ज़िंदगी...। इस‌ पॉडकास्ट में गुरुदेव के दफ्तर और काम की जिंदगी का लेखा-जोखा दिया जा रहा है

 

कार्यस्थल

 

गुरुदेव के शिष्यों का पहला समूह उनके कार्यस्थल से था। वे गुरुदेव की आध्यात्मिक क्रियाओं की शुरुआत से उनके साथ थे।

 

अपने शुरुआती वर्षों में सेवा करने के लिए गुरुदेव दोपहर के खाने के वक्त साइकिल पर सवार होकर अपने दफ्तर से पड़ोस के एक घर में जाया करते थे। आगे चलकर उनकी सवारी साइकिल से स्कूटर में बदल गई। उनके दफ्तर से कई शिष्य सामने आए, जिनकी मदद से वे कई जरूरतमंद लोगों से मिल पाए। उनके शिविर इन नवनियुक्त शिष्यों के लिए प्रशिक्षण स्थल बन गए। सेवा करने के मामले में गुरुदेव की क्षमता अविश्वसनीय रूप से बहुत ज्यादा थी।

 

के एल नागपाल, जो आगे चलकर एक श्रद्धालु बने, गुरुदेव के पहले ऐसे सहकर्मी थे, जो काम पर उनके दोस्त बन गए। द्वारकानाथ जी पहाड़गंज में उनके मकान मालिक और रूममेट भी थे। वे एक दिलचस्प किस्सा बताते हैं कि नागपाल जी को वो नौकरी कैसे मिली थी।

 

सवाल : तो, आप क्या कह रहे थे कि कुंदनलाल नागपाल जी का नाम के एल नागपाल था?

 

द्वारकानाथ जी : केएल नागपाल। केएल नागपाल भी प्रत्याशी थे और दूसरे कुंदनलाल नागपाल भी प्रत्याशी थे।

 

सवाल : जिनकी सिफारिश थी?

 

द्वारकानाथ जी : हां। तो, गलती से पहला नाम जो सामने आया, वो था केएल नागपाल और उन्होंने सोचा कि यह कुंदनलाल नागपाल है।

 

सवाल : उन्होंने उसे नौकरी दी?

 

द्वारकानाथ जी : हां, उन्होंने उन्हें नौकरी दे दी। उन्हें नियुक्ति पत्र मिला और वो नौकरी पर आ गए। एक हफ्ते के बाद उन्हें लगा कि उनके बेटे को नौकरी मिल गई है, लेकिन जब उन्होंने देखा कि वो व्यक्ति कौन है, तब उन्हें पता चला कि वो उनका बेटा नहीं है। (हंसते हुए) ऐसे लगी नौकरी।

 

सवाल : (हंसते हुए) गलती से..

 

द्वारकानाथ जी : हां। तो, दूसरे केएल नागपाल के पिता ने नागपाल को आशीर्वाद दिया और कहा, “आप बहुत जरूरतमंद थे, इसलिए आपको यह नौकरी मिली। मेरी नौकरी बाद में लग जाएगी।"

 

सवाल : तो गुरुदेव से मिलना उनका मुकद्दर था?

 

द्वारकानाथ जी : हां, उनका मिलना तय था।

 

नागपाल जी एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनके बहुत-से व्यक्तित्व थे। उन्होंने गुरुदेव को काम में बड़ी राहत दी थी ताकि गुरुदेव को सेवा का ज्यादा समय मिल सके। गुरुदेव के दफ्तर की जिंदगी को लेकर ये रही नागपाल जी की राय,

 

सवाल : नागपाल जी, यह मेरे लिए एक बहुत ही अजीब सवाल है, लेकिन उन्हें इस काम में कोई कार्यालयीन समस्या पेश आई?

 

नागपाल जी : कभी, कभी। वो कुछ ही लोगों के साथ इन मुश्किलों का सामना करते थे। बाकी तो सब कहते थे, "ठीक है, जो भी कर रहे हो, शुरू करो।" क्योंकि उनका काम संतोषजनक था और उन्हें तो सिर्फ काम से मतलब था। 

 

गुरुदेव अपने पड़ोस में रहने वाले नागपाल जी को हर सुबह 7 बजे अपने साथ ले जाते थे। नागपाल जी को अक्सर देर हो जाती थी। गुरुदेव मजाक में कहते थे, "इतने सारे लोग मेरा इंतजार करते हैं और तुम मुझे इंतजार करवा रहे हो!"

 

आगे जब नागपाल जी इस बात को लेकर सफाई देने लगते थे कि उन्हें गुरुदेव के लिए अतिरिक्त काम करना पड़ता था, तो गुरुदेव ने भी उनके नहले पर अपना देहला फेंक दिया। गुरुदेव ने कहा, “मैं दूसरों की सेवा करता हूं और तुम मेरी सेवा करते हो। तो इस नाते तो तुम मुझसे भी महान हुए?” उन दोनों के बीच इस तरह की हंसी मजाक बड़ी आम बात थी। 

 

नागपाल जी याद करते हैं,

 

नागपाल जी : आज जब कुछ बातें याद आती हैं तो मुझे रोना आ जाता है। उदाहरण के लिए, कभी-कभी, हमें सुबह जल्दी काम पर जाना पड़ता है। तो, मुझे 5 मिनट या उससे भी अधिक देर हो जाती, फिर वो कहते "नागे, हमें सुबह 7 बजे घर से निकलना है।" वो मुझे लेने मेरे घर आते थे। अगर मुझे कुछ मिनट की देर हो जाती, तो कार में घुसते ही, वो कहते, "नागा, दुनिया मेरा इंतजार कर रही है और तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो मुझे इंतजार करवा रहे हो!" (हंसते हुए)। ये एक किस्सा था और फिर एक और घटना हुई थी, जैसा कि मैंने तुमसे कहा कि वो याद करके मुझे रोना आ जाता है। लोग उन्हें ऑफिस में नहीं छोड़ते थे और घर पर उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा जाता था। उनके पास समय नहीं था और हमें अलग-अलग वाउचर्स भरकर हस्ताक्षर करके उन्हें ऑफिस में जमा करना होता था। तो, मैंने उनसे कहा, "गुरुजी, मुझे अपने काम के साथ-साथ आपका काम भी करना पड़ता है, और आप पूरे दिन घूमते रहते हैं।" वो जवाब देते थे, "सुनो, मैं लोगों का काम कर रहा हूं और आपको मेरा काम करने का काम दिया गया है, तो आप मुझे बताएं कि कौन बड़ा है? कौन बड़ा है?”

 

नागपाल जी ने बस एक बार गुरुदेव के साथ कट्टी की थी और उनसे नाराज हुए थे। यह बात तब की है जब नागपाल जी के बच्चे का जन्म हुआ था। गुरुदेव के सबसे बड़े बेटे प्रवेश चानन उर्फ बब्बा, उस घटना को याद करते हैं,

 

प्रवेश जी : नागपाल अंकल और गुरुजी इतने सालों तक दोस्त के रूप में एक-दूसरे के करीब थे और धीरे-धीरे वह रिश्ता बदल गया। ज्यादातर वे एक साथ ऑफिस जाते थे और अलग-अलग वापस लौटते थे। नागपाल जी सीधे गुरुजी के पास पहुंचे और उनसे कहा कि उन्हें एक बेटा चाहिए। गुरुजी बोले तुझे बेटा मिल गया है। नागपाल अंकल ने गुरुजी से पूछा कि सच कह रहे हैं ना कहीं ऐसा न हो कि मेरी बेइज्जती हो जाए। क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो उन्हें बहुत दुख होगा और नाराजगी भी होगी। या फिर मुझे अभी बता दो। ये सुनकर गुरुजी ने एक बार फिर कहा कि हो गया तेरा बेटा, तू चिंता मत कर। कुछ दिनों के बाद, आंटी प्रेग्नेंट हो गए। जब उनको 2 महीने हो गए तो उन्होंने फिर गुरुजी से पूछा "क्या मुझे बेटा होगा?" गुरुजी ने उत्तर दिया "हां हो जाएगा।" एक बार जब वो गुरुजी के कमरे में आए तो वहा सुरिंदर तनेजा अंकल और बाकी लोग बैठे हुए थे, तो उन्होंने फिर वही सवाल किया, "गुरुजी, देखना कि कहीं मुझे लड़की ना हो जाए क्योंकि मुझे एक लड़का चाहिए।" तो गुरुजी ने कहा, "चिंता मत करो, तुम्हें बेटा ही होगा। अब तुम घर जाओ।" जब वे कमरे से बाहर निकले, तो गुरुजी जोर-जोर से हंसने लगे और सुरिंदर जी से कहा कि "ऐ देख, इदी कुड़ी आ रही है।" यह सुनकर, सुरिंदर जी चौंक गए और गुरुजी से पूछा "गुरुजी लेकिन आपने उनसे एक बेटे के लिए वादा किया था और अगर बेटी हुई तो वो नाराज हो जाएंगे।" जिस पर गुरुजी ने उससे कहा कि वो उसे एक लड़की दे रहे हैं क्योंकि वो नागपाल जी की हृदय की समस्या के बारे में जानते थे। मुझे इसके बारे में 2-3 साल पहले पता चला था। उन्होंने कहा कि नागपाल जी के पास ज्यादा ज़िंदगी नहीं बची है। हालांकि, एक बार यह चौथी लड़की उसके जीवन में आ गई, तो कुछ कर्म कारणों से, वो तब तक कहीं नहीं जाएगा जब तक कि उस लड़की की शादी नहीं हो जाती और वो घर नहीं बसा लेती। सुरिंदर अंकल ने सुना कि गुरुजी ने क्या कहा। गुरुजी को उन्हें समझाने के लिए सुरिंदर जी और कुछ अन्य लोगों को उनके घर भेजना पड़ा और उन्हें मनाना पड़ा। उन्हें पता नहीं था कि तब तक नागपाल जी की पहले से ही 2 बाईपास सर्जरी हो चुकी थी। उन्हें दिल का दौरा भी पड़ा था। उन्होंने कहा था "जब तक उनका कर्ज नहीं चुकाया जाएगा, वो नहीं मरेंगे।" ये गुरुजी ने सुरिंदर तनेजा जी से कहा था।

 

इस घटना के बारे में दिलचस्प बात यह है कि कई बार गुरुदेव को किस्मत के साथ हेरफेर करनी पड़ती थी। इस खेल में उन्हें वो चाल चलनी पड़ती थी, जो उस खेल का हिस्सा ही नहीं होती थी। और यह उनका ऐसा ही एक तरीका था।

 

उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि नागपाल जी की इतनी बेटियों के बीच उन्हें एक बेटी और हो ताकि इसके जरिए उनकी जिंदगी में इजाफा हो सके। चूंकि नागपाल जी गुरुदेव के ऑफिस कैंप के दौरान उनके सबसे करीबी सहयोगी थे, तो गुरुदेव उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रखते थे।

 

गुरुदेव की टीम के एक जूनियर आनंद पराशर गुजरे हुए उन वर्षों को याद करते हैं,

 

ज़ाहिर है यदि वो एक शायर होते और मैंने उनसे उनके ज़ेहन में छिपी यादों को ताज़ा करने को कहा होता, तो शायद उन्होंने ये नज़्म सुना दी होती, 

 

तुम ज़िद तो कर रहे हो हम क्या तुम्हें सुनाएं 

तुम ज़िद तो कर रहे हो हम क्या तुम्हें सुनाएं 

नगमे जो खो गए हैं उन्हें कहां से लाएं 

उन्हें कहां से लाएं

 

आनंद जी : जो मैंने देखा और अनुभव किया, उससे जो मैं समझ सकता हूं, उनमें सेवा भाव इतना था कि मैंने अपने जीवन में कभी किसी में ऐसा नहीं देखा। मैंने उन्हें अपने जीवन में कभी भी गुस्सा होते नहीं देखा। जब भी उन्हें समय मिलता, वो ध्यान करते। दोपहर के भोजन के बाद जब वो दौरे पर होते थे, तब भी वे कुछ समय ध्यान में बिताते थे। हम सोचते थे कि वो सो रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं होता था। वो हर चीज पर नजर रखते थे। वो सारी जानकारी रखते थे। हमारे पूसा स्थित ऑफिस में आरके शर्मा जी नाम के एक शख्स थे। लोग अपनी समस्याएं लेकर गुरुदेव के पास आते थे। उनके आशीर्वाद से ही लोगों की समस्याओं का समाधान हो जाता था। उस समय वे दोपहर के भोजन के समय अपनी सेवा किया करते थे। कई बार मैं खुद उन्हें सेवा करने के लिए साइकिल पर ले गया हूं।

 

सवाल : आप उनके कार्यालय सहयोगी रहे हैं, फिर आप उनके भक्त कैसे बने?

 

आनंद जी : एक बार हम दौरे पर थे, यह साल 1985 या 86 की बात है। हमारा दौरा लखनऊ में सुरेचा नाम की जगह पर था। वहां से हम नक्शे लेने सीतापुर गए और वहां सब्जी मंडी थी। हम सब्जियां खरीदना चाहते थे क्योंकि ज्यादातर कर्मचारी एक साथ रहते थे। हमने वहां से कुछ सब्जियां खरीदीं। हम बहुत-से लोग थे, जो कैंप में रह रहे थे, इसलिए एक बार में ही सभी जरूरी सब्जियां खरीद लेते थे। चूंकि सब्जियां बहुत सारी थीं और हम जल्दी में थे, तो मैंने एक गरीब मजदूर से इसे हमारी गाड़ी तक छोड़ने के लिए कहा। तो गुरुजी ने कहा, "एक काम करो, तुम उसके साथ जाओ।" मैंने उससे पूछा कि वो कितने पैसे लेगा? उसने कहा कि 2 रुपए। उन दिनों 2 रुपए की कीमत बहुत अधिक थी। मैं राजी हो गया और उसने उन सब्जियों को हमारे वाहन में रख दिया और मैंने उसे 5 रुपए की जगह 2 रुपए दिए। उसने कहा कि उसके पास वापस देने के लिए खुल्ले नहीं है। मैंने उससे कहा बाकी पैसे रख ले। आप विश्वास नहीं करेंगे, मैंने देखा कि गुरुजी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा था, मैं उस दिन को अब तक नहीं भूल सकता। उन्होंने कहा "बेटा, मैं तुझमें यही देखने आया था"। उन्होंने हम में दया का ऐसा बीज बोया कि किसी से द्वेष करना ही नहीं है।

 

सवाल : तो, ऑफिस में सभी जानते थे कि वो एक गुरु थे? क्या वे उनसे मदद मांगते थे?

 

आनंद जी : जहां तक मदद की बात है तो इंसान स्वार्थी होता है। अगर कोई कहे कि वो स्वार्थी नहीं है, तो वो निश्चित रूप से है। अगर उन्हें पता चल जाएगा कि इस तरह से उनकी समस्याओं का समाधान हो जाएगा, तो वे उसी रास्ते पर चलेंगे। तो ऑफिस में भी लोग उनसे मिलने आते थे। यहां तक कि बाहर से भी लोग ऑफिस में उनसे मिलने और उनका आशीर्वाद लेने आते थे। इसलिए, जब भी गुरुजी को समय मिलता, वे उन्हें अपना आशीर्वाद देते। फिर बाद में हमारा ऑफिस पूसा से कर्जन रोड शिफ्ट हो गया। वहां गुप्ता जी की एक चाय की दुकान थी जहां गुरुजी जाकर लोगों से मिलते और अपना आशीर्वाद देते थे।

 

सवाल : तब उनके बॉस तो ये देखकर बहुत नाराज़ हो जाते होंगे कि ऑफिस का काम छोड़कर वो ये यह कर रहे हैं?

 

आनंद जी : नहीं, मैं स्पष्ट कर दूं कि ऑफिस के काम में गुरुजी ने कभी विलंब नहीं होने दिया। उनकी सबसे पहली प्राथमिकता ऑफिस का काम थी। वो पहले अपने ऑफिस का काम पूरा करते थे। मैंने कभी ऐसा दिन नहीं देखा जब कोई भी अधिकारी ने ये कहा हो आपका काम पेंडिंग है। शायद 1990 में गुरुजी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली थी, लेकिन मैंने कभी किसी को उनके काम के बारे में शिकायत करते नहीं देखा। उनका सारा काम बढ़िया रहता था। 

 

आइए बढ़ते हैं गुप्ता जी की तरफ जिनके चाय और जूस के स्टॉल पर गुरुदेव अक्सर आते-जाते थे।

 

ऑफिस बिल्डिंग में गुरुदेव की मौजूदगी की खबर छिपाने के लिए इस शख्स को जितने झूठ बोलने पड़ते थे, उससे तो यकीनन यह इंसान ‘प्रिंस ऑफ लाइज़’ यानी ‘झूठ के शहज़ादे’ कहलाने के काबिल थे।

 

हम तो यह कहेंगे कि जिस तरह चार्ल्स को ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ कहा जाता है, उसी तरह हमारे गुप्ता जी ‘प्रिंस ऑफ टेल्स’ यानी कहानियों के शहज़ादे थे।

 

गुप्ता जी : यहां उनसे मिलने के लिए हमेशा लोगों की भारी भीड़ रहती थी।

 

सवाल : यहां भी मिलते थे, मतलब इस टी स्टॉल पर भी आते थे?

 

गुप्ता जी : हां, वो इस चाय की दुकान पर आकर बैठते थे। क्योंकि गुरुजी ऑफिस में किसी से नहीं मिलते थे, इसलिए उनसे यहीं मिलते थे।

 

सवाल : अच्छा तो वो यहां उनसे मिलते थे। आपने एक बार मुझसे कहा था कि गुरुदेव रोज आपके स्टॉल से जूस पीते थे?

 

गुप्ता जी : तो चाय-कॉफी का स्टॉल बनने से पहले हमारा जूस का काम था। 1973 के आसपास ही हमें पता चला कि वो एक गुरु थे।

 

सवाल : उनके ऑफिस का समय क्या था?

 

गुप्ता जी : वे सुबह 9.30 से दोपहर 4.30 बजे तक काम करते थे।

 

सवाल : 9:30 से 4:30 तक। क्या वो समय पर पहुंच जाते थे?

 

गुप्ता जी : हां, दरअसल वो काम शुरू होने से पहले सुबह करीब 7.30 बजे यहां पहुंच जाते थे।

(7.30?)

 

गुप्ता जी : वो कुछ काम करते, हाजिरी लगाते और अपने काम के लिए कहीं निकल जाते थे।

 

सवाल : और वो शाम 4.30 बजे तक ऑफिस से निकल जाते थे।

 

गुप्ता जी : हां। ज्यादातर उनके पास अपना फील्ड वर्क ही होता था। ऐसे में वह ऑफिस में ज्यादा नहीं रहते थे।

 

सवाल : तो, गुप्ता जी, उनकी वजह से आपके स्टॉल पर जूस पीने के लिए काफी संख्या में लोग आते होंगे? 

 

गुप्ता जी : कुछ लोग यहां खड़े होते थे और कुछ वहां! कुछ उनके पीछे-पीछे स्टॉल तक आ जाते थे। लोग हर गेट पर ये सोचकर अपनी गाड़ियां लगा देते थे कि गुरुजी इस गेट या उस गेट से निकलेंगे और वो मेरे साथ मेरी कार में जाएंगे।

 

सवाल : मैंने सुना है कि हर कोई कहता है कि गुरुदेव पहले ही लोगों को अपना वेतन दे देते थे।

 

गुप्ता जी : बांट देते थे वो।

 

सवाल : आपने देखा है उनको बांटते हुए?

 

गुप्ता जी : मैंने देखा है। असल में इसके लिए कोई प्रक्रिया नहीं थी। गुरुजी बस हर इंसान की परेशानी सुनते थे और उनकी मदद करने के लिए एक निश्चित राशि देते थे। कोई कहता था कि मेरी बेटी की शादी है तो कोई कुछ और मांगता था।

 

सवाल : गुरुदेव अपने लिए कोई तनख्वाह रखते थे कि नहीं?

 

गुप्ता जी : बाद में जब हम ज़ोर देने लगे तब एक केएल बख्शी थे और नागपालजी, गुरुजी उनको साइन करके दे देते थे और वो उनको और माताजी को तनख्वाह लाकर देते थे।

 

सवाल : क्या कोई और बातें हैं जो आप गुरुदेव के साथ अपने अनुभवों के बारे में बताना चाहेंगे, जो दूसरों को सुनने में दिलचस्प लगे?

 

गुप्ता जी : हर दिन लोग अपनी गाड़ियां लेकर सारे द्वार पर इंतजार करते थे ताकि गुरुजी को जहां भी जाना हो वो उन्हें वहां ले जा सकें। वो किसी के हाथ अपनी स्कूटर की चाबियां और हेलमेट मेरे पास भेजते थे और कहते थे, "गुप्ता से कहो कि वो अपने गुरु को यहां से निकाले।" 

 

सवाल : फिर?

 

गुप्ता जी : मैं उनकी स्कूटर स्टार्ट करता और एक गेट से दूसरे गेट तक जाता और लोग मेरे पीछे-पीछे आते।

 

सवाल : तो, लोग अंततः गुरुदेव को पकड़ लेते थे और उन्हें घेर लेते थे?

 

गुप्ता जी : लोग ऐसा तभी कर सकते थे जब गुरुजी पकड़े जाना चाहते थे! वे ऐसा कभी नहीं कर पाते थे। वो कहते कि मैं इस बड़े गेट से निकलूंगा। हमें जाते हुए देखकर सभी गाड़ियां हमारा पीछा करतीं। यह इतना मुश्किल नहीं था।

 

गुरुदेव के शरीर छोड़ने के कई दशकों बाद आज गुप्ता जी नजफगढ़ के स्थान पर एक नियमित सेवादार हैं। अब वो ‘प्रिंस ऑफ लाइज़’ नहीं बल्कि सर्वोत्तम गुणों के सम्राट हैं। गुरुदेव उनके साथ शारीरिक रूप से ना सही, लेकिन अब भी उनकी जिंदगी का एक हिस्सा हैं।

 

प्रताप सिंह जी दफ्तर में गुरुदेव से वरिष्ठ थे, लेकिन असल में वो हम सभी के बॉस थे। हम लोग उन्हें जो तरज़ीह देते थे, उससे वो संतुष्ट रहते थे। उनके लिए हमारे छोटे-छोटे काम और उनके प्रति सम्मान ही इस बात को नजरअंदाज करने के लिए काफी था कि हम उनके अधीन लगने वाले ऑफिस के कैंप्स में नियमित रूप से घुसपैठ कर लेते थे। 

 

गुरुदेव भी उनकी बड़ी इज्जत करते थे और सभी प्रोटोकॉल का पालन करते थे। अक्सर कैंप में वे प्रताप सिंह जी के लिए खाना भी पकाते थे और कभी-कभी उनके लिए छोटे-छोटे काम भी कर दिया करते थे।

 

वैसे नास्तिक प्रताप सिंह जी के पास अपने इस जूनियर यानी कि गुरुदेव की तारीफ में कुछ वजनदार शब्द हैं। 

 

प्रताप जी : वो बहुत अच्छे लड़के थे। गुरु की कृपा से उनकी हथेली पर ये शिव जी के चिन्ह आ गए थे। बड़े ऊर्जावान और शांत थे। उनमें कोई अहंकार नहीं था, वो बड़े मेहनती भी थे क्योंकि वो अलग-अलग क्षेत्रों में साल में छह से नौ महीने फील्ड पर रहते थे। इसलिए, मैंने उन्हें एक ऊर्जावान और एक बढ़िया कर्मचारी पाया।

 

सवाल : तो, प्रताप सिंह जी, गुरुदेव का क्या काम था?

 

प्रताप जी : सॉइल सर्वे (मृदा सर्वेक्षण)। उन्हें क्षेत्र का सीमांकन करने के लिए नदी घाटी परियोजना में सर्वेक्षण करना होता था, अलग-अलग तरह की मिट्टी का सर्वेक्षण करना होता था जो पहाड़ी क्षेत्रों से झरकर जलग्रहण क्षेत्रों और जलाशयों को भर देती थी। इसलिए, वो भारत में विशेष रूप से उत्तरी भारत में विभिन्न नदी घाटी परियोजनाओं में एक सॉइल सर्वेयर (मृदा सर्वेक्षक) के रूप में काम कर रहे थे। वो दिल्ली में तैनात थे। ऑफिस का समय सुबह 9.30 बजे से था, तो वो सुबह 9 बजे ही ऑफिस पहुंच जाते थे।

 

प्रताप सिंह जी गुरुदेव से बस यही चाहते थे कि वे पूरी निष्ठा के साथ काम करें और समय पर काम करें। वे दोनों ही मामलों में गुरुदेव से संतुष्ट थे। इससे उनके लिए गुरुदेव के आध्यात्मिक कार्यों को नजरअंदाज करना और आसान हो गया। प्रताप सिंह जी आगे बताते हैं।

 

प्रताप जी : वो हमेशा मुस्कुराते रहते थे। आप उन्हें कभी उदास नहीं देखेंगे ना ही वो किसी दूसरे का दर्द देख सकते थे जैसे यदि कोई व्यक्ति आकर कहता कि उनकी पत्नी बीमार है तो वे कहते, "वो ठीक हो जाएंगी, जा।" वह कभी किसी चीज के लिए ना नहीं कहते थे। वो हमेशा सकारात्मक सोच रखते थे।

 

गुरुदेव जिन आधिकारिक कैंप्स का हिस्सा थे, वो कैंप लोगों के उपचार का जरिया बन गए। इन्हीं कैंप्स के जरिए गुरुदेव को अपने भावी शिष्यों से मिलने का मौका भी मिला।

 

आर सी मल्होत्रा जी ने गुरुदेव के दोस्त के रूप में शुरुआत की। बाद में वे उनके मकान मालिक बने और उसके बाद उनके परम शिष्य।

 

आर पी शर्मा जी बड़े सादगी पसंद और प्रभावशाली इंसान थे जो गुरुदेव के लुका ब्रासी बन गए।

 

डॉ शंकर नारायण ने अपने अधीन काम करने वाले एक व्यक्ति को अपना गुरु और एक अन्य अधीनस्थ मल्होत्रा जी को अपना वरिष्ठ गुरुभाई मानकर बड़ी विनम्रता दिखाई। 

 

एफ सी शर्मा जी इंसानियत की एक मिसाल थे, जो गुरुदेव के कुछ चुनिंदा शिष्यों में शामिल थे। वो गुरुदेव की दफ्तर की जिंदगी और उनके कर्तव्य पालन पर रोशनी डालते हैं।

 

अक्सर ये होता है कि एक अच्छी बात स्पष्ट सुनाई नहीं देती। तो आप भी इस ऑडियो की अस्पष्टता को थोड़ा नजरअंदाज करते हुए सुने,

 

सवाल : इसका मतलब है कि वो एक सामान्य ज़िंदगी जीते थे?

 

एफसी शर्मा जी : हां। ऑफिस में वे जहां भी जाते थे, सब उन्हें उनके नाम से बुलाते थे।

 

सवाल : लोग उन्हें उनके नाम से बुलाते थे?

 

एफसी शर्मा जी : हां, उनके नाम से।

 

सवाल : और वो अपने वरिष्ठ सहयोगियों को 'सर' कहकर संबोधित करते थे और उन्हें सम्मान देते थे?

 

एफसी शर्मा जी : हां। उन्होंने कभी किसी को ये नहीं जताया कि वो एक 'गुरु' हैं और जब भी वो अपने वरिष्ठों के ऑफिस में प्रवेश करते थे तो वो 'क्या मैं अंदर आ सकता हूं' कहकर अनुमति मांगते थे।

 

सवाल : जब भी वो अपने सीनियर्स के ऑफिस में आते थे तो वो कहते थे, "क्या मैं अंदर आ सकता हूं सर?"

 

इस चर्चा के कई साल बाद भी ये इंटरव्यू जारी रहा...

 

सवाल : हर किसी के पास दिन में 24 घंटे होते हैं, और गुरुदेव अपने काम के प्रति बहुत समर्पित थे, हर जगह वे खुद ही जाया करते थे। आध्यात्मिक जीवन में भी आपके पास पाठ करने के लिए समय और समर्पण होना चाहिए। तो गुरुदेव ने दोनों के बीच किस तरह संतुलन बनाया?

 

एफसी शर्मा जी : वो तो वही जानते थे कि वो कैसे संतुलन बनाते थे। लेकिन वो ऐसा जरूर करते थे। गुरुदेव ऑफिस में सुबह 8 बजे से शाम 5 बजे तक काम करते थे और गुरुदेव का पाठ रात्रि 3:15 से सुबह 5:15 तक होता था। और उनके लिए अपना पाठ करना अनिवार्य था। और जब कोई पाठ करता है, तो उसे एक निश्चित ऊर्जा मिलती है। और इस ऊर्जा से ही व्यक्ति कार्य करता है। पाठ में इतनी ऊर्जा होती है कि आप सोचते हैं कि आधा घंटा भी सो गए तो भी 8 घंटे की नींद के बराबर है।

 

मुझे लगता है कि ऑफिस के एक अन्य सहयोगी जैन साहब भी दबे पांव आध्यात्मिकता के रास्ते पर आ गए। गुरुदेव अपने प्रथम शिष्य मल्होत्रा जी को प्रशिक्षित करने में व्यस्त थे और उन्हें रोज ही सिखाते थे। फिर हर शाम को सवाल-जवाब का दौर चलता था। जैन साहब चुपचाप बैठकर सब सुनते थे। ज़ाहिर है कि वे इस विषय को लेकर बेहद उत्साहित थे, और इसी खूबी ने उन्हें गुरुदेव के सबसे प्रभावशाली शिष्यों में से एक बना दिया।

 

आइए एफ सी शर्मा जी के शब्दों में ये दिलचस्प किस्सा सुनते हैं,

 

सवाल : तो, मल्होत्रा जी, जैन साहब और गुरुदेव ज्यादातर एक साथ रहते थे और गुरुदेव मल्होत्रा जी के साथ ज्यादा वक्त बिताते थे और वे कभी-कभी जैन साहब को दूर बैठाते थे क्योंकि वे अपने व्यक्तिगत मुद्दों पर चर्चा करते थे।

 

एफसी शर्मा जी : बाद में मुझे एहसास हुआ कि गुरुदेव सुबह मल्होत्रा जी से कहते थे कि रात में ऐसा करना चाहिए।

 

सवाल  : गुरुदेव मल्होत्रा जी से कहा करते थे कि रात में उन्हें फलां-फलां चीजें करनी है?

 

एफसी शर्मा जी : जैसा गुरुदेव ने बताया, मल्होत्रा जी उसी का पालन करते थे और हर सुबह उन्हें पूरी रिपोर्ट भी देते थे। मुझे नहीं पता कि गुरुदेव उन्हें क्या बताते थे। बाद में हमें पता चला कि गुरुजी न सिर्फ उन्हें प्रशिक्षण दे रहे थे, बल्कि उन्हें कई मंत्र भी सिखाए और देवी देवताओ से भी मिलाया। 

 

हालांकि इस बात को समझना ज़रा मुश्किल है लेकिन निश्चित तौर पर इस बात में दम था। उन्होंने कहा कि गुरुदेव मल्होत्रा जी को मंत्रों में प्रशिक्षित करते थे और उन्हें देवी-देवताओं से मिलवाने में मदद भी करते थे। 

 

अब हम मल्होत्रा जी की कुछ चुनिंदा उपलब्ध ऑडियो रिकॉर्डिंग्स में से एक सुनने वाले हैं। वे उन बहुत-से लोगों में संभवतः पहले शख्स थे, जो गुरुदेव के खास थे। उनमें कमाल का हास्य गुण था, और गुरुदेव के संसार में तो वे एक संस्थान से कहीं ज्यादा थे। 

 

सवाल : मैंने सुना था कि आप एक शरारती शिष्य थे। क्या ये सच है?

 

मल्होत्रा जी : शरारती?

 

सवाल : मतलब आप मजाक किया करते थे, या किसी को चिढ़ाते थे या कभी-कभी बड़े जैन साहब को डराते भी थे। तो क्या ये सब चीजें अध्यात्म के अंतर्गत आएंगी?

 

मल्होत्रा जी : वो कुछ गलतियां कर देते थे और उस समय मैं उन्हें इस तरह समझाता था।

 

गुरुदेव के दफ्तर के एक और खास सहकर्मी थे स्वर्गीय दत्ता बाबू। गुरुदेव ने ये सुनिश्चित किया कि दत्ता बाबू का तबादला कोलकाता में हो जाए ताकि वे वहां एक स्थान या मदद एवं उपचार केंद्र के संचालक बन सकें।

 

आर के शर्मा जी का घर ऑफिस से साइकिल सवारी की दूरी पर था। उनका घर वो जगह बन गई जहां ऑफिस के ब्रेक के दौरान गुरुदेव लोगों की सेवा किया करते थे। 

 

आइए आनंद जी के पास वापस लौटते हैं,

 

आनंद जी : ऑफिस में हमने उन्हें कभी खाना खाते हुए नहीं देखा। दरअसल, सच कहूं तो उन्हें समय ही नहीं मिलता था। ज्यादातर दोपहर के भोजन के समय, वो लोगों से मिलते थे क्योंकि लोग ऑफिस के बाहर बड़ी उम्मीद लिए उनका इंतजार करते थे। चूंकि उन्हें ये सारी शक्तियां प्रकृति से मिली थीं, इसलिए वो इसे कभी नकार नहीं सकते थे। वो  हमेशा अपनी तरफ से सहयोग करते थे।

 

गुरुदेव को जो थोड़ी-बहुत तनख्वाह मिलती थी वो पगार वाले दिन और कम हो जाती थी। 

 

द्वारकानाथ जी इस व्यथा को कुछ यूं बयां करते हैं, 

 

द्वारकानाथ जी : गुरुदेव को पैसों से कोई लगाव नहीं था। वो वेतन लेते थे, नागपाल जी भी लेते थे। नागपाल जी को उनका पूरा वेतन मिलता था, और जब गुरुदेव आते थे तो खाली हाथ आते थे। क्लास 4, सर्कल के लोग, चाय की दुकान पर चाय पीते हुए चाय वाले से पूछते थे कि कितने रुपए हुए, और अगर चाय वाला कहता कि 30 रुपए हुए, तो गुरुदेव 50 रुपए देते थे और उससे कहते थे कि हम एडजस्ट करते रहेंगे। उस समय उनका एक ड्राइवर भी था, वो गुरुदेव से पैसे मांगता था। तो शाम को जब वे घर आते थे, तो उनके  पास पैसे ही नहीं बचते थे। जब मैं कहता था कि नागपाल जी को भी सैलरी मिली और आपको भी, तो वे हमेशा कहते थे, "मैं क्या करूं, लोग मुझसे पैसे मांगते हैं, इसलिए मैं उन्हें दे देता हूं।"

 

गुरुदेव को रुपए पैसों का कोई मोह नहीं था। घर पर वो अपनी पत्नी के वेतन को लेकर खर्चीले नहीं थे और दफ्तर में खुद के वेतन को लेकर बड़े उदार थे।

 

यदि हिसाब लगाया जाए तो दोनों के वेतन मिलाकर भी परिवार की परवरिश और स्थान के खर्चों के लिए काफी नहीं थे। इतना ही नहीं, गुरुदेव के वेतन का कुछ हिस्सा उनके जूनियर कर्मचारियों में बंट जाता था, जो उनसे आर्थिक मदद की गुहार लगाते थे।

 

फिर भी उनका गुजारा हो ही जाता था। इसका राज़ था बरकत! 

 

गुरुदेव की पत्नी उनकी ताकत थी। अक्सर उन्हें गुरुदेव की उदारता की वजह से बहुत-सी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था, लेकिन वो बड़े सब्र और खुशी के साथ हर स्थिति संभाल लेती थीं। वे अपने घर पर लगातार की जाने वाली सेवा का बखूबी ध्यान रखती थीं। वे पेशे से एक स्कूल टीचर थीं। दिन का ज्यादातर वक्त काम करने के बाद वे बाकी समय अपने परिवार का ख्याल रखने और लंगर संभालने में बिताती थीं। माताजी के लिए 18 घंटे लंबा दिन चलता था, लेकिन गुरुदेव के लिए तो संभवतः इससे भी लंबा दिन होता था।

 

वे गुरुदेव के दफ्तर की ज़िंदगी की कुछ दिलचस्प बातें बताती हैं,

 

माताजी : मैंने सुना है कि वो दफ्तर में कभी-कभी दोपहर के समय कुछ बातें कहते थे, जो सच हो गईं। फिर लोग उनके आसपास जमा होने लगे, उनके साथ काम करने वाले लोग उनके ऑफिस के बाकी लोग। उन्होंने कहा कि एक खास समय पर गुरुजी ने कुछ कहा था जो सच हो गया। उस समय गुरुजी चुप रहे, क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि इस विषय पर बहुत ज्यादा चर्चा हो। उस समय मल्होत्रा वगैरह उनके दोस्त थे। उसी समय मल्होत्रा उनके शिष्य बने थे। इसके बाद उन्होंने अपने शिष्यों को ये सभी मंत्र देना शुरू कर दिया।

 

डॉ शंकर नारायण गुड़गांव में रसोईया बन जाते थे। कई बड़े समारोह के दौरान वही  सामुदायिक रसोई का पूरा काम संभालते थे।

 

भगवान का शुक्र है कि रसोई संभालते वक्त आग के करीब उनकी लहराती हुई लुंगी नहीं जली! ज़ाहिर है वो खाना पकाना नहीं जानते थे, लेकिन इतना तो तय है कि वो लुंगी डांस मैं तब से माहिर थे, जब बॉलीवुड में इस गाने का माहौल भी नहीं बना था।

 

सवाल : आप गुरुदेव को कैसे जानते थे?

 

शंकर नारायण जी : दरअसल, जब मैं दिल्ली के ऑफिस में आया, तो मैं 5 साल तक उनके बारे में नहीं जानता था।

 

सवाल : आप एक ही ऑफिस में थे?

 

शंकर नारायण जी : नहीं, वो पैरेलल ऑफिस में थे और मल्होत्रा ​​जी मेरे ऑफिस में थे। मल्होत्रा ​​जी ने मुझे गुरुजी के बारे में उससे पहले कभी कुछ नहीं बताया। मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता था। गुरुदेव के विभाग के कर्मचारी श्री दत्ता के पिता काफी बीमार थे। उन्होंने सभी इलाज आजमाए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। फिर, किसी ने उन्हें गुरुजी के बारे में बताया और दत्ता को इसके बारे में पता चला और गुरुजी ने सचमुच उन्हें बचा लिया। वो कहानी दत्ता और मेरे एक साथी ने आकर मुझे बताई थी, जब मैं इराक से वापस आया था। फिर मैंने दत्ता से कहा कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं। दत्ता ने कहा कि उन्हें पता था कि मुझे ऐसी चीजों में दिलचस्पी है। गुरुजी ने दत्ता से यह भी कहा कि उन्हें पता था कि उन्हें मेरे आने का इंतजार है। वे उस सही समय का इंतजार कर रहे थे। इस तरह मैं वास्तव में दत्ता की मदद से गुरुजी से मिला। मैं दत्ता का बहुत आभारी हूं क्योंकि उनकी वजह से मैं गुरुजी से मिला और उनका शिष्य बन गया।

 

गुरुजी एक दिन स्वयं मेरे ऑफिस रूम में आए। वे अंदर आए और मैं फौरन अपनी सीट से उठा और उनके पास आकर बैठ गया। 2 मिनट के भीतर उन्होंने कहा, "हम आपके घर जाएंगे"। वे बैठ गए और फिर उन्होंने मुझसे पूछा "तुम मुझसे क्या चाहते हो?" मैंने उनसे कहा, "आप शिव भक्त हैं और मैं असल में गणपति के लिए हूं"। फिर उन्होंने मुझसे कहा कि इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने चाय पी और फिर मेरी पत्नी और बच्चों से भी बात की और चले गए। अगले दिन उन्होंने मुझे एक पर्ची दी और गणपति का पहला जाप दिया। इस तरह यह शुरू हुआ। फिर उन्होंने मुझे मेरा दूसरा गणपति जाप दिया और उन्होंने कहा कि यह आप किसी को नहीं देंगे।

 

सवाल : मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या आपके पास उनसे मिलने के कोई और कारण थे?

 

शंकर नारायण जी : हां, हां, वो मैं आपको बताता हूं। हर दिन मुझे डॉक्टर के पास जाना पड़ता था और किसी न किसी के लिए दवाएं लाना पड़ता था, खासकर मेरी सबसे छोटी बेटी वैशाली के लिए, जो अब यूएसए में है। उसके बाद मैंने किसी भी डॉक्टर के पास जाना बंद कर दिया।

 

सवाल : डॉ शकरनारायण, मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि इतने सारे लोग थे, जो उनसे मिलने आते थे, यहां तक ​​कि मैं उनके ऑफिस के बाहर इंतजार करता था और फिर इतने सारे द्वार थे, इन सबको लेकर उनके ऑफिस के बॉस की क्या प्रतिक्रिया थी?

 

शंकर नारायण जी : उनके बॉस भी राहत के लिए उनसे मिलते थे क्योंकि, जो अद्भुत बात मैं आपको बता सकता हूं, वो यह है कि उनके मालिक आकर उनके पैर छूते थे। लेकिन जब वो ऑफिस में होते तो वास्तव में एक सरकारी कर्मचारी की तरह मेज के सामने खड़े रहते थे। यही गुरुजी की विशेषता थी। 

 

सवाल : आपने देखा कि वो प्रोटोकॉल का पालन कर रहे थे?

 

शंकर नारायण जी : ऑफिस में वो वैसे ही थे, जैसा एक  सरकारी कर्मचारी को होना चाहिए।

 

सवाल : डॉ शंकरनारायण, क्या उनके ऑफिस के लोगों ने इस बात को स्वीकार किया कि उनसे मिलने के लिए इतने लोग आते थे और उनके ऑफिस के बाहर खड़े रहते थे। क्या इससे लोगों को उनसे ईर्ष्या और जलन नहीं हुई?

 

शंकर नारायण जी : बिल्कुल। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। गुरूजी मुझे किसी जगह ले जा रहे थे। रास्ते में उनकी मुलाकात अपने एक सहकर्मी से हुई और उन्होंने मज़ाक में गुरुजी से कहा "अब तुम गुरु बन गए हो"। यह सुनकर गुरुजी बस मुस्कुरा दिए। ऑफिस में कुछ ऐसे लोग भी थे, जो उनके अनुयायी थे और उनमें से कुछ उनके शिष्य भी थे। उन दिनों वे गुरुजी से दुकान से सिगरेट लाने को कहते थे।

 

सवाल : उन्हें ये पता लगने से पहले कि वो असल में एक गुरु थे?

 

शंकर नारायण जी : हां, और गुरुजी भी जाकर उनके लिए फिलिप सिगरेट लाते थे। असल में वे ये सभी काम करते थे।

 

गुरुदेव न सिर्फ अपने सहकर्मियों के लिए सिगरेट खरीदकर लाते थे बल्कि वो लोग अक्सर उनकी उदारता का फायदा उठाकर गुप्ता जी के स्टॉल पर चाय पी लेते थे और उसके पैसे गुरुदेव के खाते में जुड़वा देते थे। 

 

लेकिन इस तरह के शोषण से गुरुदेव हमेशा बेअसर रहे। इस बारे में मुझे बिट्टू जी से एक बड़ी पते की बात सुनने को मिली, जो उनसे गुरुदेव ने ही कही थी। उन्होंने कहा, “वो कल भी पीते थे, हम कल भी पिलाते थे, वो आज भी पीते हैं, हम आज भी पिलाते है, वो कल भी पिएंगे, हम कल भी पिलाएंगे।”

 

उनके लिए उदारता कोई त्याग नहीं था, बल्कि वो तो एक मकसद था!

 

दरअसल सुशीला चौधरी नाम की एक महिला के मसले के बाद ऑफिस के सहयोगी गुरुदेव से प्रेरित होने लगे। इस महिला के नास्तिक पति आगे चलकर सेवा के कार्य में एक निपुण खिलाड़ी बन गए। उनकी ऊंची कद काठी, दमदार आवाज और असरदार व्यक्तित्व के चलते उनका रुतबा ही अलग था। उनके निधन के बाद पटेल नगर के स्थान में दशकों तक उनकी कमी बनी रही। आत्मा के रूप में उन्होंने उन लोगों की भी सेवा की जो स्थान पर आते थे। आइए उनकी कहानी सुनते हैं। 

 

सुशीला जी : मैं गुरुजी को पिछले 35 वर्षों से जानती हूं। मैंने  उनके साथ उनके ऑफिस में काम किया है। जब मुझे गुरुजी के बारे में पता चला, तो पहले मेरी एक बेटी रितु थी, और डॉक्टरों ने मुझसे कहा था कि अब मैं कभी गर्भ धारण नहीं कर पाऊंगी। यह मेरी बेटी होने के 4 साल बाद की बात है। जब मैं गुरुजी से मिलने गई, तो मैंने हाथ जोड़कर उन्हें नमस्ते किया। तब गुरुजी ने कहा, "हां पुत, किस तरह आए हो?” 

 

मैंने कहा, "डॉक्टरों ने मुझे बताया हैकिआपगर्भ धारण नहीं कर सकती, क्योंकि एक ट्यूब ठीक है, लेकिन दूसरी खराब है। मैंने 4 साल तक कई इलाज और ऑपरेशन कराए, सभी टेस्ट किए गए, लेकिन अंततः डॉक्टरों ने इनकार कर दिया है कि आप गर्भ धारण नहीं कर सकती।" गुरुजी ने कहा, "डॉक्टरों को छोड़ दो, वो तो पागल हैं, तुम्हें तो तीन बेटे होने हैं।" उन्होंने पहले ही दिन मुझसे यह कहा। और मेरी आंखों में जैसे खुशी के आंसू थे। मैंने कहा, अच्छा जी। उन्होंने मुझसे 21 इलायची लाने को कहा। उस समय गुरुजी स्टील का कड़ा पहनते थे। गुरुजी ने कहा, "मालिक ने चाहा तो अगले साल तक आपके घर में एक बच्चा खेलेगा।" उन्होंने यह भी कहा कि मेरे तीन बेटे होंगे। एक साल बाद मैंने पुनीत नाम के एक लड़के को जन्म दिया। फिर डेढ़ साल में एक और लड़का हुआ। फिर एक दिन गुरुजी ने कहा, "अब अगले बच्चे के लिए तैयार रहो।" मैंने कहा, नहीं गुरुजी। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा, "मैंने आप से एक बेटा मांगा और आपने मुझे दो बेटे दिए, अब जिस तरह से आपने मुझे खुश किया है, दूसरों को भी खुश करो। तब गुरुजी ने कहा, "मुझे तुम्हें तुम्हारे भाग्य का हिस्सा देना है"

 

मैंने कहा, “नहीं गुरुजी बस, अब यह किसी और के लिए होना चाहिए।” जब भी मैं गुरुजी से मिलने जाती, तो वो हमेशा मुझसे यही बात कहते और मैंने भी हर बार यही जवाब दिया। अंत में, एक दिन गुरुजी ने कहा, "तू रोज़ रोती थी, आज मैंने उस बच्चे का जन्म कहीं और करा दिया है।" उन्होंने मुझे ये भी बताया कि उस बच्चे ने कहां जन्म लिया था। 

 

सवाल : तो ये तीसरा बच्चा, जिसका जन्म गुरुदेव ने कहीं और कराया, क्या आप जानती हैं कि वो बच्चा कौन है?

 

सुशीला जी : मैं नहीं जानती कि वो कौन है, लेकिन उसका  जन्म किसी बड़े करोड़पति परिवार में हुआ है। हालांकि गुरुजी ने कहा कि बच्चा एक पवित्र आत्मा है और मेरे परिवार में जन्म लेना चाहता है, जहां भक्ति, पूजा पाठ  होती  है। लेकिन जब मैंने मना कर दिया और बच्चे ने किसी और परिवार में जन्म लिया और इससे मुझे कभी-कभी परेशानी होती थी। गुरुजी ने कहा, "यदि आप ऐसा होने देती, तो सबकुछ ठीक हो जाता क्योंकि यह एक पवित्र आत्मा है और आपके परिवार में जन्म लेना चाहती थी"। गुरुजी ने यह भी बताया कि वो मेरे पिता की आत्मा थी। मेरे पिता पाठ, पूजा, भक्ति किया करते थे। मुझे अपने पिता से बहुत लगाव था।

 

स्वर्गीय सुशीला जी की कहानी में दिलचस्प बात यही है कि उनके ऑफिस के एक सहयोगी ने सारी मेडिकल जांच और रिपोर्ट को खारिज करके उन्हें तीन बेटों का वादा कर दिया। इसके बाद गुरुदेव ने उन्हीं के कहने पर तीसरे बेटे का जन्म किसी और घर में करा दिया।

 

इतना ही नहीं, वे तो उस अजन्मे तीसरे बच्चे की पहचान से भी वाकिफ थे! ऐसा तो केवल मानव रूप में कोई दिव्यात्मा ही जान सकती है।

 

चमत्कार करने वाले किरदार अक्सर यकीन के दायरे से बहुत दूर मालूम होते हैं।

 

हालांकि एक श्रोता के रूप में आपको अब तक इस बात को मान लेना चाहिए कि गुरुदेव  की ज़िंदगी और उनके हालातों के निर्माण के लिए सारी कायनात ने साजिश रची थी! ये ऐसी पहेली थी जैसे किसी स्क्रिप्ट पर अभिनय किए जाने का इंतजार हो।

 

गौर कीजिए किस तरह एक गाय की वजह से उन्हें पूसा कृषि विश्वविद्यालय में दाखिला मिला, किस तरह गलत नागपाल को नौकरी मिल गई, ताकि वे सही चीजें कर सकें, किस तरह उन्होंने वो आराध्य देवता बनने के लिए गुण विकसित किए, जो उन्हें बनना ही था, किस तरह इत्तेफाक से उनके शिष्यों की नियुक्ति उसी विभाग में हुई, जिसमें वे स्वयं थे।

 

असल में उनके कार्यस्थल ने उन्हें लोगों से मिलने, अपने शिष्यों को खोजने और उन्हें प्रशिक्षित करने, आधे देश का भ्रमण करने, सेवा का दायरा बढ़ाने, कई पूर्व और वर्तमान श्रद्धालुओं को उनकी तपस्या का फल देने और मनुष्यों, पशुओं एवं आत्माओं को मुक्ति दिलाने का अवसर दिया।

 

वे लोग गुरुदेव की नियति का हिस्सा थे, जिस तरह गुरुदेव उनकी तकदीर थे!

 

क्या किसी बेहतरीन स्क्रिप्ट राइटर ने भी कभी इस तरह की स्क्रिप्ट का विचार किया होगा?

 

इसमें रचनात्मकता और कल्पना से ज्यादा सामने वाले शख्स को जानने की जरूरत होती है। उनकी कहानी का भविष्य तो सिर्फ वही बता सकते थे, जो गुरुदेव का भविष्य देख सकते थे, और वो थे प्रसिद्ध संहिता के सूत्रधार ऋषि भृगु!

 

गुरुदेव की ज़िंदगी एक तरह का चमत्कार ही थी। तो आइए हम भी चमत्कृत हो जाएं।

 

आए हो निभाने को जब किरदार ज़मीं पर 

कुछ ऐसा कर चलो के ज़माना मिसाल दे        

कुछ ऐसा कर चलो के ज़माना मिसाल दे